इंसानी फितरत
इंसानी फितरत
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पहले था दोस्त, घर और परिवार से प्यार,
इससे न था इंसान अंजान।
ले ली है अब जगह प्यार की भूख ने,
ये कैसी इंसानी फितरत हो गयी है भगवान।
नहीं बांटते आज कुछ भी अपना,
करते है खून खराबा गर न हो पूरा इनका सपना।
न थकता करते बड़ों बूढों का भी अपमान,
देख कैसी इंसानी फितरत हो गयी है भगवान।
किसी के सच्चे प्यार को भी न समझ सका वो,
अपनी झूठी हमदर्दी, अपने आँसू दिखा
उसकी इज़्ज़त उतार ले गया वो।
खुद को भगवान समझे,
करता रहता सदा सबका अपमान,
देख कैसी इंसानी फितरत हो गयी है भगवान।
पाल पोस कर बड़ा किया जिन्होंने,
धक्का दे कर बाहर किया उफ़ तक नहीं की उन्होंने,
दिखे धन दौलत के सैलाब जहाँ,
आज उमड़ता है बस प्यार ही प्यार वहां,
फिर समझता है खुद को बड़ा महान,
देख कैसी इंसानी फितरत हो गयी है भगवान।
रूह तक जुड़ने के वादे करने वाले,
आज जिस्मों से जुड़ कर छोड़ चले जाते है,
प्यार के मायनों को ना समझ कर धोखेबाजी करते जाते है,
लूट कपट सब करते रहते बेचते है वो अपना ईमान,
देख कैसी इंसानी फितरत हो गयी है भगवान।