गुनगुनाती धूप
गुनगुनाती धूप
सुनहरा आंचल ओढ़े,
सर्द रातों से राहत देते,
गुनगुनाती धूप वाले दिन
ये जो आते हैं।
याद वो जमाना,
जुड़ी छतों और मोहल्ले
के बरामदे की दिलाते हैं।
आंगन में रखे, अचार के मर्तबान
सुखते पापड़।
होते थे खुशी और गम साझे
धूप सेंकते खुलती थी
मन की गांठे।
कहाँ रही अब वो बातें।
बच्चों को अब ये धूप कहाँ
भाती है
कहते हैं मोबाइल की स्क्रीन
साफ नज़र नहीं आती है।
औरतों का भी हाल यही
कहती हैं धूप, चेहरे की
रंगत ना चुरा ले कहीं।
कैसे बतलाए इनको
बिना इस धूप के
हड्डियाँ कमजोर रह जाएंगी,
ठिठुरन में चैन कहीं ना पाएंगी।
थोड़ा सा तन को दे
विश्राम,
बैठे अपनों के साथ
ये गुनगनाती धूप
यादों के पिटारे के साथ
तंदुरुस्ती दे जाएगी