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घना अंघेरा

घना अंघेरा

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बाहर जगत मे दिखने लगा घना अंधेरा

सुरज भी दुर नही कर सकता बेचारा,

देखते ही देखते रोज होता है सवेरा

मन में सबके फैला है खामोश अंधेरा।


बीन बोले ही आती जाती महंगाई

चैन-वैन सब धरी रहती है हमारी,

मन से ही करते सदैव वाद-विवाद

आइनेमें दिखे चेहरे पर उदासी भरी।


मचलता, घबराता, तरसता है मन

सबके सामने बनते वजनदार हम,

आगे पिछे घुमे अच्छाइयो का सरगम

अशांती के बाजार में हम भरते है दम।


दिन उजालो मे हम डरे-डरे से रहते

काली रातो में निडर बन जाते है

धरतीपर कई तरहकें फुल गुलशनमें

आकाश में चाँद हसकर देख रहा है।


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