STORYMIRROR

फ़ैसला उनका...

फ़ैसला उनका...

1 min
14.2K


फ़ैसला उनका हक़-ए-मुक़द्दर कहाँ रहा,

मैं तो मरता ही हरदम गया जीता कहाँ रहा...


बोहोत दी सफाई उसने होने की मजबूरी,

मैं तो समझता ही गया सुनता कहाँ रहा...


धड़कनों पे ज़ोर था जो सांसें चल रही थी,

दिल गम-ए-सेहरा होता गया संभलता कहाँ रहा...


की दौड़ धूप बोहोत एक दीद-ए-झलक को उसकी,

और था वो के पोशीदा हुआ दिखता कहाँ रहा...


रात सियाह सी हो चले अब तो दिन भी मेरे,

शमा-ए-इश्क़ हुई ठंडी वो चांदना कहाँ रहा...


बे-सर-पैर की होती है गुफ़्तगू अब तो ढले शाम,

लुटा दिल-ए-बाज़ार कोई मौज़ू कहाँ रहा...


यादें भी अब तो हम पर इक एहसान सा करती हैं,

हँसी तक की उसकी कानों में अब तो कतरा कहाँ रहा...


हाँ भूल जायेंगे एक न एक दिन तो ज़रूर,

अब तो सीने में यह तलक भी जज़्बा कहाँ रहा...


ख़ैर अब तो मनाइये पड़ चली उम्र ढीली 'हम्द',

जोश-ए-रफ़्ता-ए-तूफां-ए-इश्क़ साँस-ए-तमन्ना-ओ-आरज़ू कहाँ रहा....


 

 


Rate this content
Log in