एक वक्त ऐसा भी था
एक वक्त ऐसा भी था
एक वक्त ऐसा भी था जहाँ दिन ढलते ही शाम हुआ करती थी
रंगीन बत्तियों की झिलमिलाहट सी सजीली शाम...
आगोश में उसकी पिघलता था तन मेरा, मरमरी मेरी बाँहों को सहलाते कटती थी उनकी शाम,
नशे सी नशीली आँखों में खोते कहाँ पता चलता था कब डूब जाता था सूरज समुन्दर की गोद में...
हौले से पंजों के बल मेरा आँखें मूँदे उपर उठना और मेरे भाल का उनके लबों की मोहर पर महकना
शाम को रंग देता था रोमांस की अठखेलियों में झूमते...
क्यूँ अब दिन और रात के बीच का एक पहर जिसे शाम कहते है वह खो गया है...
अब तो दिन सीधा रात पर ही रुकता है दिन ढलते ही
मेरी बेताब नज़रें तलाशती रहती है उस खोई शाम की रंगीनियों को...
सिर्फ यादों में पिक बू करती उस शाम की खुशबू मघमघते हुए कहती है,
एक वक्त ऐसा भी था जहाँ दिन ढलते ही शाम हुआ करती थी...
कोई ले गया मेरी सजीली शाम नश्तर सी यादों का उपहार देकर, क्या होती है अब भी शाम??
