एक गरीब बच्चें का बचपन
एक गरीब बच्चें का बचपन
"चलो
आज मैं कराहती बिलखती
गरीब बच्चे के बचपन की,
रुग्ण-नग्न तस्वीर संग
मरती हुई मानवता की, मैं
आंखों देखी दास्तां हूं सुनाती।"
बचपन क्या होता
पता नहीं उसको
अपने पेट में जल रही आग को
बुझाता पत्थरों को तोड़ता
मलवा कूड़ा कबाड़ा उठाता
कभी गिरता कभी उठता
बार-बार कोशिश करता
चलो....
उसका नसीब,
उसको लाचार बना देता
छोटी सी उम्र जो ना देखा
सब देख लेता
हालातों के सामने
सब कुछ करता
जो ना कर सकता
वह भी करने को मजबूर होता
चलो ..
देख कर मत करना
इनकार इनको
जो हो तुम्हारे पास एक-एक करके देना
भगवान सब कुछ देख रहा
तेरी भी खुशियाँ लाखों भर देगा
चलो ....
दो वक्त की रोटी के लिए इधर-उधर भागता
लाखों गालियाँ खाता
सूखी रोटी उठा कर
अपना पेट खुद भरता
हम शादियों में जाकर भरी प्लेट को फेंक
आते,
उतना ही लेना साहिब जितना तुम खा सको
क्योंकि गरीब का बच्चा भी खाने को तरस रहा
चलो.....
दो वक्त की रोटी के लिए
कुछ भी बेचता
हमें उनके लिए कुछ करना चहिये
हमें जरूरत हो, ना हो फिर भी लेना चाहिये
हमें समझना चहिये
उसकी बेकारी का
वक्त है साहिब
ना जाने किसको राजा
किसको भिखारी बना देगा
चलो....
क्या रोना-कहाँ सोना
जहाँ रहते फुटपाथ में
मच्छरों से दोस्ती करके
अपनी नींद पूरी करता
दो वक्त की रोटी मिले ना मिले
खाली पेट सो जाता
चलो..