एक बेटी की कपोल कल्पना
एक बेटी की कपोल कल्पना
पंख फैला अपने मैं भी,
आसमान देखना चाहती हूँ,
जो चारों ओर भरा जल है,
मैं उसमें तैरना चाहती हूँ,
मैं चाहती हूँ जीवन में मेरे,
पूरे हों सब ख़्वाब बड़े,
पढूं लिखूँ आगे बढ़ जाऊं,
हो जाऊं अपने पैरों में खड़े,
माँ, मैं भी कल्पना सी बनकर,
अंतरिक्ष को छूना चाहती हूँ,
अपने इस छोटे जीवन में.
माँ, मैं भी उड़ना चाहती हूँ,
आत्मनिर्भर बनकर मैं माँ,
अपनी शक्ति ख़ुद ही बन जाऊं,
बोझ कभी ना बनूं किसी पर,
मैं सम्बल तेरा बन जाऊं,
इस पुरुषवादी समाज में,
अपनी जगह बनाना चाहती हूँ.
इरादों के पर लगाकर,
माँ, मैं भी उड़ना चाहती हूँ,
माँ, मैं भी सिंधु साक्षी बनकर,
खेल रत्न पा जाऊंगी,
तेरे घर आकर तेरा,
अभिमान मान बन जाऊंगी,
ना बांधो मुझको जंज़ीरों में,
मैं भी आज़ाद घूमना चाहती हूँ,
ना काटो मेरे पंखों को,
मैं इनसे उड़ना चाहती हूँ,
माँ, मैं भी उड़ना चाहती हूँ।।