“एक अजनबी शहर”
“एक अजनबी शहर”
यूँ तो यहाँ रहते, एक अर्सा बीत चुका है…
पर फिर भी - पता नहीं क्यों
कभी-कभी अजनबी सा लगने लगता है यह शहर!
दिल बेचैन होकर इतने ‘अपनों’ में
किसी अपने को ढूँढने लगता है जैसे,
पता नहीं क्यों, पर होता है ऐसा मेरे साथ अक्सर!
ये चिर-परिचित सड़कें एक प्रश्न-वाचक चिन्ह
बन खड़ी होती हैं, और पूछने लगती हैं…
क्या पहले भी कभी गुज़र चुका हूँ मैं इन पर से?
और तब… एक औपचारिक सी मुस्कान होठों पे लिए
अपनी और इनकी घनिष्ठता को बख़ूबी समझते हुए,
कुछ कहना चाह कर भी ख़ामोश-अवाक खड़ा रहता हूँ!
चप्पे-चप्पे से इस शहर के वाक़िफ़ हूँ मैं;
बहुत से सूर्य यहाँ मेरे सामने उदय हुए हैं
और जाने कितनी शामों को ढलते देखा है यहाँ मैंने…
पर फिर भी - पता नहीं क्यों, कभी-कभी…
एक अजनबी सा लगने लगता है यह शहर मुझे!
