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Satyendra Gupta

Abstract

4.6  

Satyendra Gupta

Abstract

द्रोपदी की विवशता

द्रोपदी की विवशता

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385


मैं कैसे लिखूं कविता, द्रोपदी चीर हरण पे

हाथ भी कांप जाता है

भरी सभा में, एक नारी पे होते अत्याचारों 

को सब कैसे देख पाता है।


मैं कैसे लिखूं ,उस पल को जहां एक नारी

को अपमानित कर रहे थे

अपने ही उनके साथ 

धर्म का गला घोट रहे थे।


मैं कैसे लिखूं ,एक अलग इतिहास, की

हो रही थी अजब सी रचना

जिसका परिणाम था, सभी को भुगतना

जिसने ये खेल रचा था

इस खेल में कुछ नही बचा था

सब कुछ हार गए थे

अंत में बची द्रोपदी

उसको भी दाव पे लगा गए थे।


कैसे लिखूं, हारकर द्रोपदी को

दास बन चुप बैठे थे

अपनी ही आंखों के सामने

अबला नारी पे अत्याचारों को 

होते देख रहे थे।


कैसे लिखूं भरी सभा में 

शुरबीरो का मेला था

लेकिन एक बार भी बीरो का

क्या खून भी नही खौला था

क्या इस तरह से बीरता का

हनन होता है

क्या इस तरह से मूक दर्शक बन 

बीरो को शोभा देता है।


कैसे लिखूं कृष्ण को भी

सब कुछ थी जानकारी

एक बार सचेत कर देते प्रभु 

फिर ये नही आती बारी

पांडव बीर होकर भी

लाचार सा हो गए थे

क्या आप अपनी माया दिखाने को

ये सब खेल रच रहे थे।


ऐसा खेल अब प्रभु मत रचना

यहां कृष्ण कोई नही बन पाएगा

जब अस्मत लूटेगी नारी का

बचाने कोई नही आ पाएगा

रात को मोमबत्ती जलाकर

रोड शो कर लेते हैं

इज्जत बचाने की खातिर

वस्त्र लेकर नही आ पाते हैं

वस्त्र लेकर नही आ पाते हैं।।


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