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Shakuntla Agarwal

Others

4.8  

Shakuntla Agarwal

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दर्द

दर्द

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आँखों से अश्क़ छलक जायें,

समझो दर्द बेइन्तहाँ है,

दिल रोने को चाहें,  

समझो दर्द बेइन्तहाँ है,

वातानुकुलित कमरें में तपन सताये,

समझो दर्द बेइन्तहाँ है,

मजदूर के पॉंव के छाले,

तुम्हारे पैरों में उभर आये,

समझो दर्द बेइन्तहाँ है,

ग्रास तोड़ो रोटी का,

मज़दूरों का चेहरा रोटी में उभर आये,

समझो दर्द बेइन्तहाँ है,

चलते - चलते पैर लड़खड़ाये,

समझो दर्द बेइन्तहाँ है,

प्यास उन्हें लगी हो,

होंठ तुम्हारें सूख जाये,

समझो दर्द बेइन्तहाँ है,

पैदल चलने वालों के साथ,

उनकी गठरी का बोझ उठाने को दिल चाहें,

समझो दर्द बेइन्तहाँ है,

माँ काँधे पर हो उनके,

उसमें अपनी माँ का अक्स नज़र आये,

समझो दर्द बेइन्तहाँ है,

भरी दोपहर में नँगे पाँव,

दौड़ कर सीने से उन्हें लगाने को जी चाहें,

समझो दर्द बेइन्तहाँ है,

उनकी बेबसी के आगे,

अपनी बेबसी छोटी पड़ जाये,

समझो दर्द बेइन्तहाँ है,

गाल तो सभी बजा लेते हैं,

कुछ करने को जी चाहें,

समझो दर्द बेइन्तहाँ है,

मज़दूरों के बीवी - बच्चों की पीड़ा देखकर,

शरीर सिरहन से भर जाये,

समझो दर्द बेइन्तहाँ है,

उठो, कमर कसो, कुछ तो करो,

सरहद पर शहीद होने वालों की तरह,

उनके लिए शहीद होने को जी चाहें,

समझो दर्द बेइन्तहाँ है,

पेशानी पे पसीना छलक जाये,

समझो दर्द बेइन्तहाँ है,

लाशों के ढेर में "शकुन",

अपना भी साया नज़र आये,

समझो दर्द बेइन्तहाँ है।।



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