धर्म
धर्म
हड़कंप मचा है भूमि पर
प्यासा है खून का ये नर
है फैला चारों ओर जहर
ढाता है लम्हा-लम्हा कहर
यहाँ तांडव करती है नफरत
बदली है मानव कि फितरत
कब बीतेगा ये काला प्रहर
कब जाएगा विध्वंस ठहर
हरा, केसरी, श्वेत, नीला
हर मज़हब को है रंग मिला
उलझी रंगों में मनुष्यता
चहूँ ओर है छाई असभ्यता
वसुधा माँ जो थी एक बनी
जीव जन्तु से जिसकी गोद भरी
अब पाती है असहाय खुद को
लगती है उजड़ी कोख उसको
औलाद एक ही माटी के
पर भिन्न-भिन्न है जाती के
है पिता आसमां ये सबका
पर बटवारा हो चुका रब का
हिन्दू, मुस्लिम ,सीख , ईसाई
जैन, बौध, पारसी, यहूदी
इंसान बटे है धर्मों में
पर चुक गए है कर्मों से
कहे अपने-अपने धर्म कि बढ़ाई
हो गई है शर्मिंदा ये खुदाई
जो भूल रहे है ये कसाई
प्रभु कि है एक ही परछाई
गीता- पुराण, बायबल, कुरान
सीख एक ही देते है
फिर क्यों धरती कि औलादें
बाते धर्मों कि करते है?
ईश्वर, अल्लाह ,बुद्ध, येशु
गर होते थे ये अलग-अलग
फिर क्यों इंसानी शरीर को
ढाला सांचे में एक-सलग
खुदगर्जी कि है अभिलाषा
सो बदली धर्म कि परिभाषा
बोले हम है धर्म के रक्षक
जो है इंसानियत के भक्षक
हो गया है खफा परमेश्वर
जो बांटा है सबने ईश्वर
बोले धर्म तेरी ही पैदाइश
ना कर मुझको यूँ कारावास
चेताता हूँ आएगा प्रलय
मैं ही हूँ तेरा न्यायालय
ना संभल सकेगा तेरा धर्म
जो चुनेगा तू मार्ग अधर्म
चाहे कर पूजा या फरियाद
कर प्रार्थना या अरदास
सब मुझ तक ही पहुँचता है
अन्त में तू मुझमें ही मिल जाता है
झूठे धर्म कि पट्टी फाड़ दे
मन के दरवाजे खोल दे
इंसानियत ही है धर्म बड़ा
खोलो आँखें देख मैं हूँ खड़ा