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अंधेरा, नींद और स्वप्न

अंधेरा, नींद और स्वप्न

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रात के अंधेरे में,

नींद का पहरा,

मुझ पर होता है।

तब स्वप्न,

मुझे जगाता है।

कर लेता है मुझे,

अपने में समाहित।

हो जाता हूँ मैं स्वप्नमय।


देखता हूँ तुम्हें,

कभी छोटी सी,

ज्योति की तरह।

कभी कुहाँसे में,

रूपहली झलमल,

बुन्द की तरह।

कभी लहलहाती,

कलियों की तरह।


मुस्कुराती हुई,

दिखती हो।

उसमें निहारता हूँ,

तुम्हारा ही मुख-मंडल।

क्षण भर का,

यह उदय-अस्त।

केवल,

पैदा कर जाता है,

हृदय में सिहरन।


तभी अचानक,

निद्रा साथ छोड़ जाती है।

स्वप्न के पन्ने,

बिखर जाते है।

कोशिश करता हूँ,

इकट्ठा करने का,

लेकिन,

मिलती है मुझे,

असफलता,

रह जाती है मेरे पास,

सिर्फ विवशता।

न रहता है अंधेरा,

न रहता है नींद का पहरा


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