आस
आस
पीछे मुड़कर जब देखती हूँ,
पाती हूँ एक चुप्पी !
वीरानी, शांति, कुण्ठा,
उल्लास और एक आस,
बचपन का लड़कपन,
जवानी का अल्हड़पन,
अपनों के बीच मुस्कुराना !
अपनों का प्यार पाकर,
फूल सा खिल जाना !
ज़िन्दगी का कौन सा रूप
नहीं जिया मैंने ?
कभी ख़ुशी का, तो कभी
ग़म का घूंट पिया मैंने !
ज़िन्दगी के कोरे पन्नों पर,
अपनों के नाम लिखती चली गयी
समय का बदलाव तो देखो,
सब नाम - अक्षर धूमिल हो गए !
जो बने हमसफ़र - हम साया,
वही दुनिया में न जाने कहाँ
गुम हो गए ?
मेरा प्यार, ममता और
अपनापन तो वही है,
वो छलावे की तरह छल कर,
दुनियादारी में न जाने कहाँ
गुम हो गए ?
ढूँढती रही नज़रें उनका
दीदार पाने को,
हसरत लिए उनके आने की,
हर आहट पे ग़मगीन हो गए !
सोचकर हैरान हूँ परेशान हूँ,
क्या यही दस्तूर है दुनिया का ?
यही दुनिया है तो फ़िर,
क्यों ? आस करते हैं हम,
अपनों से अपनेपन की !
पल - पल जीते हैं,
पल - पल मरते हैं हम,
एक आस के साथ !
अपनेपन का साया,
कभी हमें अपने पास बुलाएगा !
हमारी अँधेरी दुनिया में भी,
रौशनी का दीया जगमगाएगा !
स्वार्थी दुनिया में स्वार्थों का साथ है,
क्यों ? दफ़न कर देते हैं हम,
शकुन रिश्तों को ?
माया और स्वार्थ के बाज़ार में