आंखें
आंखें

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हसरतों के दीप जलाए
मन मयूर सा नाच रहा
सावन की बौछारों से
अंग- अंग पुलकित हो उठा
हरी-भरी वादियों की
मनमोहनी छटा ने
फिजा को रंगों में डूबो दिया
उमड़ते- घुमड़ते बादल भी
'उनके' दीदार को हैं खड़े
ये हर्षित निशब्द मन
कुछ ना बोल सका
बस 'आंखों' की गहराईयों से
हर भावों को कह गया
निश्चय ही 'शब्द' ही नहीं
'आंखें' भी बोल जाती हैं
ये जज्बातों का सैलाब है
जहां 'आंखें' भी जरिया बन जाती हैं!!!