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फर्क

फर्क

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बाजार से गुजरा तो कंपाउडर मिल गया। शहर के नामी गिरामी डॉक्टर का कंपाउडर था इसलिए जान पहचान अच्छी थी।

"और भाई साहब क्या हाल चाल हैं, खैरियत।"

"जी बिल्कुल, आप सुनाइये, भाभी जी का फ्रैक्चर तो अब बिल्कुल दुरुस्त होगा।"

"जी सब डॉक्टर साहब की कृपा है। वरना सरकारी हस्पताल ने तो ऑपरेशन ही गड़बड़ कर दिया था।"

"अजी डॉक्टर साहब एक्सपर्ट है।"

"और उनके पिता जी अब ठीक ठाक हैं।"

क्यों, उन्हें क्या हुआ"।

"मैंने सुना था, कैंसर था उन्हें।"

"अजी इन लोगों को क्या होना है, हम लोग जिला, राजधानी या दिल्ली तक हर जगह धक्के खाते हैं। ये लोग सीधा लीलावती और उसके बाद अमेरिका। डॉक्टर साहब ने भी अमेरिका से इलाज करवाया अपने पिता का। एकदम फिट। कैंसर वैन्सर तो इन लोगों के लिए मियादी बुख़ार जैसा है, ये बड़े लोग है इनके लिए कोई बीमारी बड़ी नही होती। पैसे और खर्च के मामले में बस हम इनसे मार खा जाते हैं।"

कहकर कंपाउडर आगे बढ़ गया।

मैं सोच में पड़ गया। रास्ते में पड़ता सरकारी हस्पताल किसी शमशान की भांति मुंह चिढ़ा रहा था।


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