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कांच का हीरा

कांच का हीरा

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उसकी ऑंखें खुली की खुली रह गयी। विश्वास नहीं हुआ। उसने ऑंखें मल कर दोबारा पढ़ा। अच्छी तरह तसल्ली हो गयी तो चेहरे पर मुस्कान तैर गयी। ऐसा ख़्वाब कई बार खुली आँखों से देखा था, पर पूरा हो जाएगा ये तो कभी सोचा ही नहीं था। अब तो मजे ही मजे।

यही सोचते हुए अचानक उसकी नजर ब्रेड आमलेट बनाती निशा पर पड़ी। सूरत बुरी नहीं थी, मिज़ाज भी ठीक ठाक ही था लेकिन अब तो साउथ -एक्स मार्किट में देखी गोरी, बेदाग त्वचा और बिलकुल सीधे रेशमी बालों वाली लड़कियों में से किसी को...

"सुनो शाम को सब्जियां लेते आना। मुझे आज ऑफ़िस से आते- आते देर हो जाएगी।" निशा बोली।

उसने चोर निगाहों से निशा को देखा। छह महीने के लिव -इन के बाद शादी करने की सोच ली थी। पर अब निशा अपने काबिल नहीं लग रही थी। लेकिन पीछा कैसे छुड़ाया जाय ?

"क्या सोचने में लगे हो ? जल्दी करो ऑफ़िस नहीं जाना क्या ?" निशा ने टोका।


"वो दरअसल, माँ -बाबूजी कल आने को कह रहे हैं। कुछ दिन दिल्ली में मेरे साथ ही रहेंगे। अब तुम साथ रहती हो ये उन्हें तो पता नहीं।" दिमाग में जो पहला बहाना आया वही उगल दिया।

"ओह, तभी। चिंता मत करो। आज की छुट्टी ले लूंगी। अपना सामान ले कुछ दिन के लिए सहेली के पास चली जाऊँगी। पर उनसे हमारी शादी की बात ज़रूर कर लेना।" निशा ने मुस्कुरा कर कहा, चैन की साँस ले वो रोज़ की तरह ऑफ़िस चला गया। शाम को वापस लौटा तो पूरा घर बिलकुल साफ़ -सुथरा था। निशा के वहां रहने का कोई निशान नहीं था। उसके चेहरे पर मुस्कान थी। माँ -बाबूजी नहीं मान रहे का बहाना बनाना अब क्या मुश्किल था।

आज ही ऑफ़िस में नौकरी से इस्तीफ़ा भी दे आया था। खुशी- खुशी उसने अपनी दराज़ खोली। पर दराज़ भी घर की तरह ही खाली-खाली थी। सलीके से रखा एक पेन और एक नोटबुक उसे चिढ़ा रहे थे। नोटबुक के ऊपर लगी स्लिप देख उसके चेहरे की रंगत उड़ गयी।


"पूरा घर बिलकुल साफ सुथरा कर दिया है। तुम भी अजीब हो, कूड़ा-करकट सब सहेज रखते हो। सब पुराने कागज़ फेंक दिए हैं। हाँ एक छुटका सा कागज़ कुछ काम का था, सो वो मैंने ले लिया है। खैर हैप्पी ब्रेक अप टू यू। मैं अब बैंगलोर जा रही हूँ। वहीं नौकरी करूंगी "

दस करोड़ की लाटरी का विजयी टिकट अब निशा के हाथ में था।

उसके हाथ में अब कुछ नहीं था - न लाटरी, न नौकरी, न छोकरी !



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