शून्य
शून्य
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एक शून्य की तरह है ज़िन्दगी
जिस का कोई ओर या छोर नहीं
आगे रह कर भी अव्वल नहीं
और पीछे रहे तो मुकम्मल नहीं
उसी शून्य की चार दीवारी में
कहीं बंधी है जाने कितनी ख़्वाहिशें
जाने कितने ख़्वाबों को
नहीं मिल पाती कभी भी मंज़िलें
हर रोज़ इस शून्य के घेरे में
आ जाती हैं नई नई उलझनें
और यूँ ही एक दिन इस शून्य में
दम तोड़ जाती हैं सारी हसरतें !!