ट्रिब्यूट
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इक रात मैंने देखा, घर मेरा जल रहा था
आँधी ने भी मदद की, मैं रह गया ठगा सा
जितनी भी थी दुआऐं, कुछ भी न काम आई
रहा देखता ख़ुदा भी, जलने का यह तमाशा
इक भीड़ सी लगी है, अब चारों ओर मेरे
कुछ आऐ मुझ से मिलने, और दे रहे दिलासा
इस भीड़ में दिखे हैं, अपनों से कई चेहरे
जो आए मुझ से मिलने, बस देखने तमाशा
कब तक छुपाऊँगा मैं, सूखे हुए यह आँसू
कर लूँगा दूर जल्दी, जीवन से यह निराशा
तिनके समेट कर अब, फिर घर है इक बनाना
यह सोच कर है माना, इस गम को भी ज़रा सा
अब रेत पर लिखा है, सारे ग़मों को मैंने
लिखने को अपनी ख़ुशियाँ, पत्थर को है तराशा