जिंदगी
जिंदगी
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जिंदगी
क्या हो तुम?
कभी
फव्वारे से झरती हो
बौछार बनकर
फूँक जाती हो नव प्राण
इस माटी में
और
कभी रिसती हो बूंद बूंद
जैसे
उल्टी गिनती शुरू हो गई हो
और
सांस दर सांस
रूह छोड़ रही हो
इस माटी को।