क्यों चाह रहा ?
क्यों चाह रहा ?
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क्यों चाह रहा मरू-भू में प्रेम के अगणित फूल खिले,
क्यों चाह रहा सूखे सर में जीवन की कुछ बूंद मिले!
निस्तेज प्राण को हर लेने बैठा है कोई यहाँ कब से,
क्यों चाह रहा निर्मम से कुछ तो प्राणों का दान मिले!
कुछ अतीत की स्मृतियाँ आंदोलित हो कर जीवंत हुईं,
क्यों चाह रहा वो बोल पड़े अब तक थे जिनके होंठ सिले!
जो गया वक़्त था निकल चुका ये अंतिम पतझड़ है,
क्यों चाह रहा मरते तरू को फिर से वही बहार मिले!