उचित पात्र

उचित पात्र

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प्रतिमा अपनी बालकनी मे खड़ी अपनी कहानी के पात्र पर चिंतन कर रही थी....प्रतियोगिता में जीवन एक संघर्ष पर लिखना है

किस पर लिखूँ??

क्या लिखूँ??


तभी सामने वाचमैन दिखाई दिया....यह सही रहेगा, गरीब रात भर जागता है तभी अमीर चैन से सोता है। इसका परिवार बच्चे मीलों दूर.. हाँ ,चलो ये सही है। 


तभी प्रतिमा ने कुछ महरियों को आते देखा। सुबह सुबह 6 बजे अपना परिवार छोड़ दूसरों के परिवार की जरूरते पूरी करेंगी..चारो पाँचों बँगाली लग रही थी। घने काले बाल और हाथ में सफेद कड़ा...बांग्लादेशी मुद्दा भी आ जायेगा, तात्कालीन घटना का समावेश भी हो जायेगा। प्रताड़ित ,मेहनती महिलाएं.... ये ज्यादा उचित पात्रा रहेंगी।


प्रतिमा खाली प्याला ले कर चलने को हुई ही थी कि उसकी निगाह सोसायटी के माली पर पड़ी।

हे भगवान...एक पैर से लाचार माली ने पूरी सोसायटी मे फूलों के रंग बिखेर रखे है। यहीं उसकी कहानी का, जिंदगी के संघर्ष का सच्चा नायक होगा, जिसकी हिम्मत का अनुसरण सभी को करना चाहिए।


पात्र के चुनाव से आश्वस्त प्रतिमा, रसोई के काम निबटाते हुए कहानी की रुप रेखा बना रही थी। 

"अरे..आप रहने दीजिए, मैं आ ही रही थी...कप गिर ना जाये।" सासूँ मां को कांपते हाथों से प्याला लेकर आते देख प्रतिमा ने टोका।

"जब तक हाथ पैर चल रहे हैं, करने दो... फिर तो तुम्हे ही करना हैं" वो मुस्कुराते हुये बोली।

उन्हें देख कर प्रतिमा सोचने लगी...यहीं तो हैं महिला सशक्तिकरण की असली नायिका..पचास बावन साल पहले नौकरी के लिये घर वालो को तैयार करना और सारी पारिवारिक जिम्मेदारियां निभाना... सरकारी नौकरी के तबादले और समाज की अपेक्षाएं। बस अब तय पाया, सासू मां के संघर्षों पर ही कहानी लिखूँगी मै...


विचार करते हुए, अखबार लेकर प्रतिमा अपने कमरे में पहुँची। देखा शलभ शेव कर रहे थे...

"अरे, इतनी जल्दी...क्या हुआ?"

"कुछ नहीं ...जल्दी जाना है, 9 बजे मिटिंग शुरू हो जायेगी। अच्छा सुनो...2-3 दिन की पैकिंग कर देना, रात की फ्लाइट से कलकत्ता जाना है। कल ही तय हुआ, जरूरी हैं।" निगाहें चुराते शलभ बोले।

"लेकिन बिट्टू की शादी..."

"परसों शादी तक आने की पूरी कोशिश करुंगा, आज और कल के कार्यक्रम मे तुम चली जाना...चचेरी हैं तो क्या, मेरी बहन तो है। देखो, तुम सम्भाल लेना..मेरी भी इच्छा थी सबसे मिलने की, मजे करने की....पर क्या करूँ ...नौकरी ही ऐसी हैं। दीदी समझ जायेंगी...टैक्सी से ही जाना तुम...." रूआंसी प्रतिमा की कहानी का नायक फिर बदल गया!!


शलभ कितनी मेहनत करते है ,थोड़ा सा भी चैन नहीं हैं। न खाने का पता, ना सोने का...मशीन हो गये है। इसी आपाधापी मे उम्र हो गई लेकिन परहेज हो नहीं पाता.... कहाँ निन्यानवे के फेर मे फँसे हैं, कोई अन्त नहीं हैं इस भागादौड़ी का....शलभ के संघर्ष की कहानी समसामयिक हो जायेंगी, पाठक का जुड़ाव भी हो जायेंगा क्योंकि हर घर मे यही सब चल रहा है। अब पात्र पक्का शलभ ही रहेंगे।


थोड़ी देर बाद सब्जी लेकर लौटती प्रतिमा ठिठक गयी। सामने थी आधुनिक पहनावे वाली, मेहनत में पुरुषों को टक्कर देने वाली गर्भवती सायना.... अपनी बेटी को स्कूल बस में बिठाकर, आफिस जाने के लिये कार निकाल रही थी... दोहरी भूमिका दृढता से निभाने वाला उपयुक्त पात्र....


प्रतिमा का दिमाग घूम गया... एक एक पात्र की जिंदगी संघर्षों से भरी हैं... किस पर लिखा जाये...किसे छोड़ा जाये। सभी अपने अपने संघर्षों से उलझे जी रहे हैं। यह तो उसके देखे हुये आस पास के ही लोग है। सुने हुए पात्र जैसे... एसीड अटैक पिड़ित हो, शहीद सैनिक की विधवा हो, त्यागे गये अभिभावक हो या दरिन्दगी की शिकार युवती, इनका जीवन भी मर्मस्पर्शी होता हैं। एक नायक का चुनाव नहीं किया जा सकता।


जो भी पात्र भावनाओं को समेटे, अनवरत अपने कर्तव्य बखूबी निभा रहा हैं ,उसका जीवन संघर्ष से भरा ही हैं...




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