Hansa Shukla

Others

4.5  

Hansa Shukla

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सफ़र

सफ़र

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मैं ट्रेन से दुर्ग से बिलासपुर जा रही थी बोगी में सभी  लोग अपनी-अपनी जगह पर बैठ गए थे मेरे सामने की सीट में दो अधेड़ पुरुष एक दो-ढाई साल के बच्चे के साथ थे। बच्चे को लिटाकर एक उसके सिरहाने के पास और दूसरा पैर की ओर बैठा था। यात्रा में जब हम अकेले होते है तो आस-पास की घटनाओं पर हम कुछ ज्यादा ध्यान देते है। सफर में मैं अकेली थी बोगी के बाकी लोग अपने में मशगूल थे मैं कनखियों से बच्चे को और साथ वाले दोनो आदमियों की हरकत को देख रही थी। वो दोनों आदमी बार-बार बाहर और दरवाज़े की ओर देख रहे थे उनके चेहरे में भय का भाव था दोनो बोगी में बैठे लोगों से नजर चुरा रहे थे बच्चा दूध की तरह सफेद, गोल-मटोल था वह बाबासूट पहने हुआ था किसी अच्छे घर का लग रहा था उसके ठीक विपरीत दोनो आदमी साँवले से, दुबले-पतले छोटे कृषक या मज़दूर लग रहे थे। मुझे उनका रिश्ता समझ नही आ रहा था,अनुभव के आधार पर लग रहा था कि वह बच्चा उनका नही है शायद उसे चुराकर वो कही ले जा रहे थे उनके चेहरे का भाव भी सामान्य नही था, सफर में अपने इस कशमकश के साथ मैं अकेली थी। मुझे सफर का हर पल बोझिल लग रहा था मैं अपने को असहाय महसूस कर रही थी मेरा पूरा ध्यान उस बच्चे पर केंद्रित था सफर के तीन घंटे पूरे हो गए थे उसने ना करवट बदला ना कुनमुनाया ऐसे लग रहा था जैसे वह गहरी नींद में सोया हो। 

आधे घंटे बाद मेरा गंतव्य बिलासपुर आने वाला था उस दिन बोगी में टिकिट चेक करने कोई नही आया और मेरी आखिरी उम्मीद भी टूट गई कि टिकिट चेकर के आने पर उन्हें मैं संदेहास्पद व्यक्तियो के बारे में बताती तो शायद सच्चाई का पता लग जाता।थोड़ी देर में गाड़ी बिलासपुर प्लेटफ़ॉर्म में थी मैं उतरकर स्टेशन मास्टर के कमरे की ओर भागी वहाँ एक आदमी था मैं उसे एक सांस में बोगी की घटना बता दी और बोली आप शायद सच्चाई का पता लगाकर उस बच्चे की मदद कर पाए उस आदमी का धयान मेरी बात में बिल्कुल नही था वह कुछ समय खैनी बनाने में व्यस्त रहा और बाकी के समय वह आते जाते लोगो को देख रहा था,मैंने एक बार फिर याचना की सर आप उस बच्चे के लिए कुछ कीजिए इस बार वह जम्हाई लेकर रूखे स्वर में बोला मैडम आप जैसे लोग खुद कुछ नही करते और दूसरों से उम्मीद करते है कि वो जेम्सबॉण्ड बनकर उनकी मनगढ़ंत कहानी में हीरो का रोल निभाये अरे आपको उस बच्चें की इतना ही चिंता थी तो आप तीन घंटे में कुछ क्यो नही कर ली। मैं रुवांसा होकर कमरे से निकल गई और सोचने लगी सच ही तो कह रहा था वो आदमी मैंने आस-पास के यात्रियों से बात भी तो नही की पर कहती भी तो किससे सब अनजान और उनकी बातों से मुझे नही लग रहा था कि वे मदद करते उन्हें भी तो वो बच्चा और दोनों आदमी दिखे होंगे ,मेरे मोबाइल  में कोई हेल्पलाइन नंबर भी नही था ना ही मैं किसी को मदद के लिए फोन लगाई पूरा समय उस बच्चे और आदमियों की हरकत को ही देखती रही।  बुझे मन और अनगिनत प्रश्नों के साथ उस बच्चे के मासूम चेहरे की छवि अपने मन मे लिए मैं घर के लिए बढ़ गई। दूसरे दिन संगोष्ठी में मैं आम आदमी के कर्तव्य विषय पर बोल रही थी और मेरे मन मे पहले दिन का सफर चल रहा था क्या मैंने अपने कर्तव्य को निभाया??


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