पुनीत श्रीवास्तव

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पुनीत श्रीवास्तव

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साइकिल !

साइकिल !

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आठवीं तक सरस्वती शिशु मंदिर का वाहन था जो घर से स्कूल तक पहुँचाता, पहले इक्का फिर रिक्शा फिर टेम्पू आखिरी तक, नवीं का हिसाब अलग बुद्ध इंटरमीडिएट कॉलेज कुशीनगर, पटेल जी शुक्ला जी चंद जी वाला, नौ ख एक नौ ख दो वाला।

मेरिट वाले ख एक मे जिसमे लड़कियों की सीट अनिवार्य रूप से सुरक्षित थी, ख दो इस मायने में लफंगों सा लगता सब कम मेरिट के थोड़ी शराफत लड़कियों के साथ रह के आती वो भी नहीं

खैर 

असल समस्या हमारी साधन की थी, कैसे हम जाएं कुशीनगर ! भाई का बी एस सी उन्हें भी साइकिल चाहिए थी, न जाने किस पुण्य प्रताप से नाना की एक पुरानी साइकिल जो गोरखपुर मौसा के यहाँ थी वो कुछ सामानों के साथ कसयां आ गई, समस्या ये हुई वो चौबीस इंच वाली रोमर साइकिल थी 

चौबीस इंच बाइस इंच का असल मतलब उतना ही नहीं होता था ये साइकिल की ऊँचाई तय करने का पैमाना भर था उस समय आज का मालूम नहीं

एक आध बार किये साइकिल की कीमत जानने के लिए थोड़ी साइकिलिंग के मकसद से 

अब कीमत साढ़े चार हजार से शुरू है शॉकर वैगेरह की थोड़ी ज्यादे, तो नाना की साइकिल आ गई तो उसी का सेटेलमेंट हमारी नवीं के साधन के रूप में हुआ सीट थोड़ी नीची हुई, नए छर्रे ग्रीस के साथ सीट कवर नया फिर भी ऊंची तो थी ही नवीं में गये हमारे हिसाब सेसाथ के लौंडे बी एस ए की नई साइकिल से कुछ एवन की कुछ एटलस पर, हम रोमर नाना के ज़माने वालीनवीं में जाने से पहले साइकिल चलाना सीखे पहले लँगड़ी , फिर सीट पर वाला ,ढेरों चोट बहरहाल साइकिल आ गई चलाने को।

एक घटना याद है कैसी चुल्ल थी साइकिल चलाने की कि एक आठवीं के मित्र जिनका घर हमारे घर से चार किलोमीटर दूर था उनके घर साइकिल से जाने का कार्यक्रम हुआमई जून की धूप में निकले जा रहे हैं दोस्त के यहां अपनी साइकिल भले पुरानी ही थी पर अपने लिए नई सी, चलाते चलाते पहुँच ही गये मित्र के घर हाँफते पूछे, ई विवेकानंद के घर है !

हां ! बाने घरे ??? ना !!

मन मे उस समय भी गालियां आई थी कसम सेतब जो लौटे हैं उसी थके हारे साइकिल चला के वापस घर, वैसा दोबारा नहीं थक पाए ,साइकिल चला के।


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