मिट्ठू दादा !
मिट्ठू दादा !
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जयप्रकाश टॉकीज हरिद्वार सेठ वाला हुआ करता था, तब टॉकीज के सामने मिठ्ठू की चाट गुलगप्पे की दुकान लगा करती थी। दुपहर बाद ठेला लगता। अंगीठी उस पर गोल बड़ा सा तवा। आलू की टिकिया गोल गोल एक के बाद एक पूरा एक घेरा बनाये हुए बीच मे गर्म मटर के छोले उस मे कटी प्याज टमाटर उनके हाथ के पतले से पलटे से कटते घुलते उसी छोले में
पत्ते के दोने में एक टिकिया उस पर गर्म छोला फिर चौखाने से लकड़ी के बॉक्स में से नमक गर्म मसाला लाल मिर्च दही मीठी तीखी चटनी ऊपर से प्याज हरी मिर्च जैसा जो चाहे
गुलगप्पे भी पानी और दही के अलग अलग
उस समय आठ आने में एक प्लेट चाट
पच्चीस पैसे की पांच या दस गुलगप्पे आते थे
हम सब तो पहुँच के हाथों या जेबों की रेजकारियाँ गिनते गिनते पहुँचते
पूछते
कितने का है चाट ?
आवाज उनकी बहुत गम्भीर नही थी पर तीखी जरूर थी
रेट बिना चेहरे पर कोई भाव लाये बताते पर ये जरूर पूछते
पैसा लाया है लड़के
कई बार तो गिन के रखने के बाद ही चाट गुलगप्पे देते
एक और ख़ास चीज हमारी उत्सुककता बढ़ाती वो उनका बिना तेल वाला लैंप
वो कार्बाइड का कोई कैमिकल रिएक्शन होता है ये बाद में पता चला
उनके दुकान पर काम करने वाला छोटा लड़का जिसको सिर्फ वो लड़के कह के बुलाते थे उनका अकेला मददगार जाने अब कहाँ है
मिट्ठू को गुजरे अरसा हो गया
अब उनके बच्चे दुकान चलाते हैं
तहसील के सामने
स्वाद अभी तक वही ही है
पर तेवर उनके जैसा नहींं लड़के पैसा लाये हो !