रोटी खाओ प्रतियोगिता

रोटी खाओ प्रतियोगिता

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बात मेरे बचपन की है। प्रत्येक गर्मी की छुट्टियों में हम सब मेरे ददिहाल इलाहाबाद में एकत्रित होते थे। उस समय हमारी शरारतें चरम पर होतीं और हम चचेरे-फुफेरे भाई-बहन मिल कर ढेरों मस्तियाँ करते थे। उस समय हम बच्चों में रोटी खाने की प्रतियोगिता होती।


जो बच्चा सबसे अधिक रोटियाँ खाकर जीतता, वह अगले दिन हम सब बच्चों का सरदार बनता। इसलिये हम सब “रोटी खाओ प्रतियोगिता“ में जीतने के लिये एड़ी चोटी का ज़ोर लगा देते।

ऐसे ही एक रात हम बच्चों की “रोटी खाओ प्रतियोगिता” चल रही थी। दादी और मम्मी रसोईघर में रोटियाँ बना रहीं थीं और हम बच्चे रसोईघर के बाहर खुली जगह पर ज़मीन पर चटाई पर बैठे खाना खा रहे थे। एक बार गुँथा आटा ख़त्म हो गया तो चाची ने दोबारा आटा गूँथ कर दिया। रोटियाँ बनती रहीं और हम खाते रहे।


थोड़ी देर बाद दूसरी बार गुँथा हुआ आटा भी ख़त्म हो गया। उसके बाद रसोईघर से आटा गूँथने वाली थाली, चकला और बेलन लुढ़कते हुए बाहर आये और साथ में दादी की दमदार आवाज़ भी “लो नालायकों! इन्हें भी खा जाओ... न ये बर्तन रहेंगे ना इस भीषण गर्मी में रोटियाँ बनाने का झंझट रहेगा।”


कहने की आवश्यकता नहीं कि फिर हमारी “रोटी खाओ प्रतियोगिता” तुरन्त ही समाप्त हो गई और फिर भविष्य में कभी नहीं हुई।


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