परिवार
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जीवन भर इस दुःख के पहाड़ से जूझते-जूझते, झेलते-झेलते, लड़ते - झगड़ते नीहारिका समय से पहले ही बूढ़ी हो गई थी। फूल सी बच्ची को पिसते देखते नीलिमा की मॉं भी अपनी उम्र से बड़ी लगने लगी थी।
नीहारिका अभी महज़ 35 वर्ष की थी।35 वर्ष की कच्ची उम्र में ( आजके युग के अनुरूप तो यह कच्ची ही उम्र थी । आज तो 35 वर्ष के बादलड़कियाँ इधर सोचना शुरू करती हैं )
नीहारिका के तीन बच्चे हो चुके थे। एक बेटी और दो बेटे। बेटी बड़ीथी,यही सबसे बड़ा और एकमात्र सुख था।मॉं को वह समझने भी लगी थी मॉं भी उस पर भरोसा करने
लगी थी।
दिनेश यूँ तो आकर्षक व्यक्तित्व वाला था ( शायद इसी आकर्षण नेऔर कुछ सोचने-विचारने का अवसर न दिया। )इतना सुन्दर दूल्हा मि लरहा है। सभी ख़ुश थे।
वह तो शादी के बाद पता चला कि दिखने और होने में अंतर होता है।वह चरित्र व वैचारिक पटल पर बिल्कुल विपरीत था। न कोई सिद्धांत, ननियम,न संयम,न पाबंदी। न प्यार,न सहानुभूति । बस आकांक्षाओं औरअपेक्षाओं का चलता -फिरता एक पुलिंदा था। बस उसे सब चाहिए ही चाहिए था। नीहारिका निचुड़ती रही वह निचोड़ता रहा। जब रसहीन लगने लगी तो भँवरा बन दूसरे फूलों पर मंडराने लगा। आकर्षक व्यक्तित्व को बड़ी ही आसानी से भुनाया जा सकता है सब पागलों कीतरह उसके दीवाने हो जाते, वह लुभाता,सब पागल हो जाते, वह रसचूसता। पिचकी गुठली बना कर उन्हें थूक आता। यह सब चारित्रिकगुण भला शादी से पहले कौन बताता है।यह रहस्योद्घाटन तो नीहारिकाको दूसरे बच्चे के जन्म बाद ही हुआ । जब वह शरीर से बहुत दुर्बल होगई थी और मायके वाले उसकी हिफ़ाज़त के लिए उसे अपने साथ लेकर चले गए थे। वह पहले ही स्वच्छंद था , अब और छूट मिल गई थी।उसने जम कर उपयोग और उपभोग किया। अब तो उसे लत हो गई थी। नीहारिका के वापस आने के बाद भी यह क्रम जारी रहा । शायद औरब ढ़ गयाज़ायक़ा बदलना
ज़रूरी हो जाता था उसके लिए और संतोष ! संतोष तो उसे कभी मिला ही नहीं ।प्यासा पंछी ही रहा जीवन भर न जाने क्यों लड़कियों को इतना विश्वास क्यों
होता है खुद पर या ग़ुरूरहोता है कि मैं सब ठीक कर लूँगी। वो घबराती नहीं हैं किसी भी अनर्थसे। आश्वस्त रह सब सहज स्वीकार लेती हैं।लेकिन
यहाँ नीहारिका ग़लत साबित हुई। साम-दाम,दण्ड- भेद कुछ भी काम न आया। प्यार से, दुलार से, क्रोध से, मनुहार से,लगाव से, अलगाव से,सारेहथकंडे अपना लिए पर कोई भी काम न आया। हर तरह से किया गयाप्रयास निष्फल गया। तब नीहारिका ने नदी में टूटी डाली की तरह गिरी टहनी की भाँति खुद को बहने दिया। जिधर जाए, जैसे जाए, जो भी हो, कुछ नहीं सोचना कुछ नहीं बदलना,
कोशिश भी नहीं करना । सम्पूर्ण समर्पण ।
ईश्वर दुःख दे कर परीक्षा लेता है। लेकिन वह भी समझता है। इतना बेरहम नहीं होता जितना कभी- कभी हम समझ लेते हैं। उसने जल्द ही नीहारिका को
सारे दुःखों से मुक्ति दिला दी। वह अभी45 वर्ष की हुई ही थी कि उसके जीवन का चमकता सूर्य अस्त हो गया। दिनेश नहीं रहा।
खबर चारों तरफ़ फैल गई। औपचारिकता निभाने सभी आ रहे थे ।सांत्वना देने। वह भी भीगी पलकों से ,दुःखी ग़मगीन बनी सब स्वीकार रही थी। जो भी आता एक
ही वाक्य दोहराता
“ हे भगवान ! यह क्या हो गया । कैसे कटेगी पहाड़ जैसी ज़िन्दगी?"
अभी उम्र ही क्या थी। 55 वर्ष कोई उम्र होती है दुनिया छोड़ने की। ये तोअभी पचास की भी नहीं हुई है।कैसे सह पाएगी। भगवान सहन करनेकी शक्ति देना। “
कोई कह रहा था
“ कैसे सँभालेगी तीन- तीन बच्चे। ये तो नौकरी भी नहीं करती। पहाड़टूट पड़ा, इस पर तो।"
“नीहारिका आँखों में आँसू मन में मुस्कान लिए,मन ही मन सोचती पहाड़ टूटा नहीं मुझ पर,मुझे तो पहाड़ से मुक्ति मिली है। मुक्ति । कैसे सहन कर पाएगी ? नहीं
कैसे सहन कर रही थी ? यह पूछो मुझसे। अब मेरा दुःख समाप्त।
कष्ट से मुक्ति मिली है।
उसकी पलकों में एक नया सपना पल रहा था, आज़ादी का।