लम्हे ज़िंदगी के…
लम्हे ज़िंदगी के…
फुनगियों पर झूला झुलते परिंदों को देख मुझे याद आया माँ के द्वारा दी गई शगुन के चावल की और दौड़ कर किचन से मुट्ठी भर चावल लाकर आँगन में छींट दिया। एक संतुष्टि की अनुभूति हुई।
कितनी अच्छी है ना! इनकी ज़िंदगी सब संग संग शाख़ों पर फुदकते चीं चीं करते। कितना अच्छा होता अगर इनकी भाषा समझ पाती तो तन्हाई नहीं कचोटती। क्या बातें करते होंगे? क्या ये भी आपस में लड़ते होंगे? ना पढ़ाई की चिंता, ना घर गृहस्थी चलाने के लिए घर से दूर पर देश जा कर कमाई की चिंता। सब एक साथ मिल -जुलकर रहते हैं।
फ़ोन की घंटी सुन कर दौड़ी …चलो किसी को तो याद आई मेरी कुछ देर बात कर अच्छा लगेगा। अरे! अननोन नंबर है।किसी विज्ञापन या किसी एजेंट का होगा। वापस चिड़ियों के साथ हो ली और फ़ोन पर वहीं बैठे -बैठे उसने वर्षों बाद एक कविता लिखा शीर्षक दिया ”परिंदे "और मेल कर दिया अनमने से अख़बार में प्रकाशनार्थ।
आज छह महीने बाद अपनी कविता अख़बार के पन्नों पर देख ख़ुशी का ठिकाना नहीं था। ज़िंदगी का यह लम्हा मुझे जीने का एक नया रास्ता दे गया।रेत सी फिसलती ज़िंदगी को एक किनारा दे गया।