लक्ष्मी- नारायण
लक्ष्मी- नारायण


‘क्या हुआ ? तबियत तो ठीक है न..? सबेरे से तुम्हारा चेहरा क्यों उतरा हुआ लग रहा है ?”
“ हाँ..हाँ...सब ठीक है।” मैं चेहरे पर फीकी हँसी लाते हुए पति से बोली।
किसे बताऊँ... मन की बात ! आज मेरी पहली वटसावित्री है, मायके से एक कौवा भी नहीं पूछने आया !
बारबार बाथरूम जाकर मैं आंसूओं से भींगी आँखों पर छींटा देती और सामने लगे शीशे को अपने मन की बात बताती , “ बचपन सौतेली माँ के साये में बीता ! असली माँ का स्वाद भी नहीं जाना ! नई( सौतेली) माँ के मोहपाश में पिता का पलड़ा हमेशा उधर ही भारी रहता ! आनन-फानन में पोलियो ग्रसित लड़के से मेरी शादी करके पिता ने अपना बोझ तो हल्का कर लिया ! खैर! भगवान का लाख-लाख शुक्र, मेरे पति भले पोलियो से ग्रसित हैं...पर, मन से अपाहिज नहीं !”
“ लक्ष्मी....ओ लक्ष्मी....।”
“ अपना नाम सुनते ही मैं चौक गई, घबराकर चिल्लाई, “जी.....अभी आई।”
“ लो, इसे पहन लो ....आज तुम्हारा पहला वटसावित्री है ।” व्हील चेयर पर बैठे पति, चुनरी की साड़ी के साथ सिंदूरी लाल लाख की चूड़ी मेरे हाथ में पकड़ाते हुए आगे बढ़ गये ।
झट से तैयार होकर, मैंने फूल की साजी (डलिया) को हाथ में लिए पूजा करने के लिए जैसे ही आगे बढ़ी, व्हील चेयर के सहारे पति मेरे करीब आ पहुँचे।
एकाएक डगमगाते हुए उठकर वो मेरे माथे को चूमते हुए बोले, “ सच, तू लक्ष्मी-सी लगती है।”
आज, उनको पहली बार बिना सहारे के खड़ा होते देख, मुझे अपनी आँखों पर विश्वास ही नहीं हो रहा था। ये, कैसा चमत्कार !? हड़बड़ाहट में मेरे साजी के सारे फूल उनके चरणों पर बिखर गये।
झुकते हुए मैं आहिस्ता से बोली, “आप, नारायण हो गये।”
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