Rajesh Chandrani Madanlal Jain

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Rajesh Chandrani Madanlal Jain

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लिफ्ट में साथ हो जाते भोले बच्चे ..

लिफ्ट में साथ हो जाते भोले बच्चे ..

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लिफ्ट में साथ हो जाते भोले बच्चे ..   

प्रनिषा अग्रवाल 7 वर्ष की मासूम बेटी, हमारे पड़ोस के फ्लैट में रहती है। अपने मम्मी-पापा के सिखाने पर वह जब भी मुझसे मिलती है, जय राधे-कृष्णा कहती है। कुछ बार नीचे उतरते या ऊपर आते हुए वह मेरे साथ हो जाती है। 

ऐसे ही एक अवसर पर मैंने उससे पूछा - प्रनिषा, आप कौन सी कक्षा में पढ़ती हो। 

बड़े ही भोलेपन से उसने उत्तर दिया था - अंकल मेरे एग्जाम हो गए हैं। अब मैं प्रमोट होकर क्लास 2 में आ गई हूँ। 

फिर एक दिन वह खेलने के लिए नीचे जाते हुए लिफ्ट में मेरे साथ हुई, मैंने पूछा - आप खेलने जा रही हो? 

प्रनिषा ने उत्तर दिया - जी, अंकल!

मैंने पूछा - आपके कितने फ्रेंड हैं। 

बड़े भोलेपन से उसने कहा - मेरी 2 फ्रेंड हैं। उनकी और भी फ्रेंड हैं। हम सब साथ खेलते हैं। मेरी मम्मा कहतीं हैं, मेरी दोनों फ्रेंड मिलें तो साथ खेला करो, नहीं तो वापस घर आ जाया करो। 

उसका मासूमियत से बोलने का अंदाज मुझे बड़ा प्यारा लगता है। फिर लिफ्ट से निकल कर वह अपनी साइकिल लेती है। मैं बाय कहते हुए आगे निकलता हूँ तो वह बड़े मिठास से मुझे - बाय, अंकल कहती है। 

वह कुछ वर्षों में बड़ी होगी। हमारे समाज में, उसे इस भोलेपन से रहना, सुरक्षित नहीं लगेगा। उसके अभी के भोलेपन/मासूमियत को उसमें से विदा लेनी होगी। 

तब भी यह जगत की अच्छा संतति क्रम होता है। नए बच्चे आते जाते हैं, भोलापन का अस्तित्व हमारे बीच बना रहता है। 

17 अप्रैल को प्रनिषा अपने मम्मी-पापा के दूसरे सोसाइटी में शिफ्ट करने के बाद, यहाँ से चली जाने वाली है। पड़ोस में उसके नहीं होने का विचार मुझे उदास करता है। 

किसी दिन उसके और मेरे मन में कुछ कुछ पलों का मिलता, यह साथ धुँधला पड़ जाएगा। इसलिए मैं प्रनिषा बेटी की इन बातों को आज ही लिपिबद्ध करना उचित समझता हूँ।  

इतना लिखने के बाद मैं सोचने लगा था। आज प्रनिषा में घमंड का रंचमात्र भी अंश नहीं है। आगे वह दुनिया की घमंड करने की रीत देखेगी। संभव है किन्हीं सफलताओं एवं उपलब्धियों को लेकर उसमें भी घमंड हो जाए। 

फिर मैं अपनी सोचने लगा था। मुझे लग रहा था, कभी मैं भी प्रनिषा जैसा ही बच्चा था। कभी मुझमें भी रंचमात्र घमंड नहीं था। फिर मैं बड़ा हुआ था। कुछ अनुकूलताओं ने मेरा भी सिर चढ़ा दिया था। 

अनेक वर्ष मैं दूसरों के गुणों को देख नहीं पाता था। अभिमानी चश्मा मेरी आँखों एवं मन की आँखों पर चढ़ गया था। मैं अपने में अच्छाई का घमंड करता रहा था। 

फिर एक दिन मैं बूढ़ा होने लगा था। मुझे नई उपलब्धियाँ मिलने का क्रम टूट गया था। 

सामने होने वाला मेरा हश्र मुझे स्पष्ट दिखने लगा था। मुझे लगने लगा था कि पंचतत्व से निर्मित, यह दिखाई देने वाला मेरा व्यक्तित्व या अस्तित्व, अंततः पंचतत्व में ही विलीन होगा। 

मेरे सामने यक्ष प्रश्न उपस्थित हुआ था जब मेरी यही नियति है तब मुझे किस बात का अभिमान होना चाहिए। 

मैंने अपने मस्तिष्क में से तब अभिमान की परत छाँटना आरंभ किया था। जब कुछ दिनों के अभ्यास से, मैंने यह कर लिया तब मुझे अभिमान का कोई औचित्य नहीं लग रहा था। अभिमान हम में आ जाए सहज बात होती है मगर यह सर्वथा त्याज्यनीय होता है। 

अभिमान त्याग कर मैं, अपने अस्तित्व को हल्का हुआ अनुभव करने लगा था। मैं सोचने लगा था - बच्चे जन्मने के समय तन-मन दोनों से हल्के होते हैं। मुझे लगा हमें जाने की बेला में, मन से बच्चे जितना हल्का होना चाहिए। ताकि अदृश्य हमारी अनश्वर आत्मा को सरलता से उठाकर देवदूत को, आकाश मार्ग से परलोक ले जाने में कोई अतिरिक्त श्रम न करना पड़े।  


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