कंगन

कंगन

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हंसीका और दीपक का पच्चीसवां सालगिरह था। शाम को पार्टी का आयोजन था घर में बच्चे खूब उत्साहित थे क्या पहनना है, कैसे संगीत होगा, माला, सजावट कैसा होगा आदी। हंसीका भी नहा धोकर मंदिर से आकर प्रसाद बाँट रही थी तभी बड़ी भाभी ने एक हीरेजड़े कंगन उसे थमाते हुए बोली ,”लो शादी के सालगिरह का तोहफ़ा “दीपक ने पैसे दिए थे मुझे, बोला था मुझे ख़रीद कर देने के लिए।

चटक गया एकबार फिर अंतर्मन। आत्मसम्मान शीशे की तरह कई टुकड़ों में बिखर गए ज़मीन पर। मानो कंगन के हीरे टूट कर मुँह 

चिढ़ा रहे हों। जब से शादी करके आई हूँ दीपक का आकर्षण बड़ी भाभी के प्रती सहती आई हूँ।

हर बात भाभी से कहना। हर काम भाभी से पूछ कर करना। लाख कोशिशें की दीपक को अपना मूल्य समझाने का सब व्यर्थ गया। दो टूक जवाब दे देते, तुम से ज़्यादा स्मार्ट है, समझदार,पढ़ी लिखी भी हैं इसलिए उनसे पूछ लेता हूँ, इसमें हर्ज ही क्या है। बहस होती फिर मैं ही चुप  हो जाती।

शाम को पार्टी में बनावटी मुखौटे के साथ केक पर नहीं, दिल पर छूरी चला रही थी। ना माँगू सोना चाँदी, ना माँगू हीरा मोती, मैं तो माँगू बस दिल में एक छोटा सा कोना। बच्चों के आग्रह पर आज के मुबारक मौक़े पर गाते हुए मैं अपने फटे दिल पर पैबंद लगा रही थी।


            

         


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