Kumar Vikrant

Others

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गुलफाम नगर का कहर

गुलफाम नगर का कहर

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इस दुनिया और इस शहर में मै तीन गुणों के साथ पधारा था, लेखन, व्यापार और आशिकी । लेकिन सत्यानाश हो इस जालिम शहर गुलफाम नगर का जिसने मेरे इन तीनो गुणों का तिरस्कार किया और तिरस्कार भी इतना कि इस शहर से भाग जाने को मजबूर हो गया था मैं । आज १० साल बाद जब इस शहर में वापिस लौटा तो मै अपनी मेहनत और लगन के दम पर अपना प्यार व कारोबार हांसिल कर चुका हूँ । शहर को देखकर पुराने जख्म ताजा हो गए, मन का पंछी उन सब जगहों पर भटक रहा है, जहाँ ये जख्म मुझे दिए गए थे ।

मन का पंछी सबसे पहले पँहुचा, 'हलाहल प्रकाशन मंदिर,' में जो पुराने शहर में था, जहाँ असली किताबो की नक़ल छापने का धंधा जोरो-शोरो से चला करता था । ग्रेजुएशन करते-करते मैंने भी अपना पहला उपन्यास, 'लम्पट बाबा,' लिख डाला था और उपन्यास की पाण्डुलिपि को बढ़िया से टाइप कराकर दे आया था, 'हलाहल प्रकाशन मंदिर,' में छपने के लिए । छह महीने तक लगातार चक्कर लगाए थे मैंने उस नामुराद प्रकाशक हजारी दास के जिसने अंत में उपन्यास की पाण्डुलिपि मेरे मुँह पर दे मारी थी और गुर्रा कर बोला था-

"तू उपन्यास बोलता है इस कागजो के पुलिंदे को, ये रद्दी का ढेर है, भाग जा इसे लेकर…………….!"

उस मोटे थुलथुल प्रकाशक के शब्द कानो में पिघले शीशे की तरह समां गए थे और मै जहर का घूँट पीकर चला आया था ।

मन का पंछी फिर जा पँहुचा, 'कालू प्रिंटर्स,' पर जहाँ मैंने अपने पहले व्यापार, 'पहलवान छाप अगरबत्ती,' के प्रमोशन के लिए पम्फ्लेट और पैकिंग डिब्बे बनवाये थे । पिताजी के हाथ-पैर जोड़कर बड़ी मुश्किल ये अगरबत्ती बनाने का व्यापार शुरू किया था ।

लेकिन पैकिंग के डिब्बे और पम्पलेट पर, 'पहलवान छाप अगरबत्ती,' के स्थान पर, 'अगरबत्ती छाप पहलवान,' छपा देखकर मेरे पैरो के नीचे से जमीन खिसक गयी थी ।

मै जी-जान से लड़ा था उस दिन मै कालू प्रिंटर्स के मालिक से खजान चंद से । मेरी सारी बकबक सुनने के बाद वो बड़ी शांति से बोला— "बेटा, मार्किट का बड़ा बुरा हाल है, सब बैठे मक्खी मार रहे है । देख अगर तेरा धंधा चलना होगा तो इसी नाम के साथ चल जाएगा और ना चला तो तू पहलवान छाप के स्थान पर तू चाहे गैड़ा छाप अगरबत्ती रख ले कोई फर्क नहीं पड़ेगा । वैसे नाम यूनीक है, जा इसी में पैक कर अगरबत्ती और सेल कर ।"

अगरबत्ती का ये व्यापार तो ना चला, लेकिन पिताजी का जूता खूब चला था मेरे सिर पर ।

अब मन का पंछी उड़ कर जा पहुंचा, 'दिलरुबा चौक,' पर जहाँ मेरी आँखे चार हुई थी रूप बाला से । उस दिन मैं यारो के साथ दिलरुबा चौक पर खड़ा गप्पे मार रहा था कि वही से रूप बाला साइकिल से गुजरी और उसकी साइकिल की चैन उतर गयी और अपने हाथ गंदे होने से बचाने के लिए मेरी और मेरे दोस्तों की और देखा । इस से पहले मेरे दोस्त मौके का फायदा उठाते मैंने आगे बढ़कर रूप बाला कि साइकिल की चैन चढ़ा दी और कर लिए अपने हाथ काले । वो तो थैंक्यू कहकर चली गयी लेकिन हम तो खूंटे के बैल की तरह बंध गए दिलरुबा चौक से । रोज सुबह हम यारो के साथ पहुँच जाते दिलरुबा चौक पर दीदार करने अपनी दिलरुबा का । एक दिन यारो के चढ़ाने पर हमने अपनी मोहब्बत का इजहार करने की हिम्मत की और रूप बाला की साईकिल रोक कर अपनी मोहब्बत का इजहार कर डाला ।

"क्या बोला तू…………….!?! तेरी हिम्मत कैसे हुई; कभी शकल देखी है आईने में………..? भाग जा सीकिया पहलवान नहीं तो अपने भाइयो को बुलाकर तेरी आशिकी का भूत उतरवा दूंगी ।" —शेरनी की तरह दहाडी थी रूप बाला ।

शाम को रूप बाला के पिता जो मेरे पिता के परिचित निकले वो मेरी शिकायत लेकर चले आये थे । पिता जी ने समझा बुझा कर रूप बाला के पिता को विदा किया और अगले दिन पिताजी मुझे अपने एक परिचित खडग सिंह की फायनेंस फर्म में ले गए और उनकी लिहाज कर के फर्म के ऑफिस क्लर्क का जॉब दे दिया। छः महीने बहुत ही मेहनत से काम किया मैंने, मेरी मेहनत और ईमानदारी से खुश होकर मुझे बैंक का काम भी दे दिया। अक्सर बैंक से पैसा लाना बैंक में जमा करना और रकम लाखो में होती थी। इसी दौरान मुझे फिर से प्रेम हुआ वो भी मेरे ऑफिस की तितली नाम की लड़की से वो मेल सैक्शन में काम करती थी। दो महीने खूब साथ घूमे।

एक दिन कुछ जमा करने के लिए बड़ा अमाउंट मिला और मै गार्ड के साथ कैश लेकर जैसे ही कार में आकर बैठा तभी तितली दौड़ कर आई और बोली उसे पोस्ट ऑफिस जाना है रास्ते में छोड़ देना। मुझे पोस्ट ऑफिस के रास्ते से ही जाना था इसलिए उसे भी साथ लेकर हम बैंक की तरफ चल पड़े। रास्ता ज्यादा लम्बा नहीं था था लेकिन तितली को चक्कर आने लगे और वो बोली- "कहीं से नींबू मिले तो लेना, नींबू चख लूंगी ठीक हो जाउंगी।"

थोड़ी दूर एक नींबू पानी के ठेला था मैंने ड्राइवर को वहीं कार रोकने को कहा और नींबू लेने कार से नीचे आ गया। नींबू लेकर मुड़ा तो गार्ड सड़क पर खड़ा मिला, तितली, कार, कैश और ड्राइवर गायब थे।

गार्ड घबरा कर मेरे पास आया और बोला, "बाबू जी ड्राइवर ने रिवाल्वर दिखा मुझे कार से उतार दिया और मैडम और कैश को लेकर भाग गया।"

मैंने उसे शांत रहने को कहा और हम दोनों वापिस ऑफिस में आ गए, वहां पहुँच कर गार्ड ने वो चीख पुकार मचाई कि पूरा ऑफिस और मालिक सब बाहर निकल आये। मालिक खडग सिंह का दिल बैठा जा रहा था आखिर कैश बॉक्स के साथ पाँच करोड़ की रकम लूट चुकी थी। मैंने उसे शांत किया और अपने केबिन में ले कर गया, पूरा पैसा मेरे केबिन में एक बैग में रखा था और जो तितली लेकर भागी थी वो सड़े-गले कागजो का ढेर था।

पैसा देख खडग सिंह की जान में जान आई और वो बोला, "ये सब कैसे सुझा तुझे?"

"सर जब से मैं बैंक का काम देखने लगा था तभी से ये तितली मेरे चारो तरफ मंडराने लगी थी, लेकिन जब मैंने उस कार के ड्राइवर के साथ लंच करते देखा तो मुझे कुछ शक हुआ और आज इस कैश की खबर सबको थी इसलिए मैंने कैश को अपने केबिन में रख कर कैश बॉक्स में रद्दी कागज भर लिए थे।"

मेरी बात सुनकर खडग सिंह बोला, "बेटे जो स्टंट तूने आज किया वैसे काम नहीं किया जाता है, जब तुझे शक था तो मुझे बताता मैं तितली और उसके भँवरे को निकाल बाहर करता। लेकिन तूने ये सब बाते मुझसे छिपा कर कम्पनी का पैसा और अपनी जान दोनों को खतरे में डाला, इसलिए अब तेरा इस कम्पनी में कोई काम नहीं है। तुझे कम्पनी से तत्काल बर्खास्त किया जाता है; सेलरी वाले दिन आ कर अपनी आज तक की सेलरी ले जाना।"

"उस दोपहर जब घर पहुँचा तो खड़क सिंह ने फोन करके सारा मामला मेरे पिता जी को बता दिया था।

परिणाम पिता जी ने मेरी जबरदस्त पिटाई की और मैं शर्म की वजह अपना घर और शहर गुलफाम से भाग निकला ।

ये घर से भागना एक परी-कथा के समान निकला । ठिकाना मिला अपने शहर से ३०० किलोमीटर दूर नाक पुर में मक्खन हलवाई की दुकान में, जहाँ हलवाई के बर्तन मांजते-मांजते खुद भी कुशल हलवाई बन गया। बर्फी, रसगुल्ले बनाते-बनाते हलवाई की लड़की कोमल से आँख लड़ गयी, बात शादी तक जा पहुँची लेकिन हलवाई को खबर लगते ही उसने दुकान से बाहर का रास्ता दिखा दिया। टक्कर लेनी पड़ी थी मुझे हलवाई से और उसके गुंडों से तब जाकर लव मैरिज हो पायी कोमल से। बाद में जा बसा नाक पुर से २१० किलोमीटर दूर सुंदर नगर में कोमल को साथ लेकर, मकान किराये का, मिठाई की दुकान किराये की। दुकान चल निकली, समय गुजरा एक दुकान से खुद की चार दुकाने खोल डाली, घर बना डाला अपना और मशहूर हो गए मोहन हलवाई के नाम से।

सब कुछ पाकर भी मन में टीस थी लेखक न बनने की । एक बंद होता प्रकाशन खरीद डाला, और सेल्फ पब्लिशिंग के नाम पर मोटी उजरत लेकर नवोदित लेखकों के उपन्यास छापने शुरू किये और मौका लगते ही, 'लंम्पट बाबा,' भी छाप डाला और तमाम किस्म की तिकड़म चला कर, 'लंम्पट बाबा,' को बेस्ट सेलर भी बनवा डाला ।

ऐसा ही एक जुगाड़ चला कर गुलफाम नगर के, 'हलाहल प्रकाशन,' द्वारा दिया जाने वाला, 'लाला झाऊ मल स्मृति पुरस्कार,' भी हांसिल किया । बिकने को तो बिलकुल तैयार न था वो मोटा बदमाश, हार कर उसके प्रकाशन को टेक ओवर की धमकी देनी पड़ी तब जाकर माना वो पुरस्कार देने को ।

मन का पंछी आज बहुत खुश था की जिस शहर ने कल धक्के देकर निकला था आज वो शहर मुझे, 'सर्वश्रेस्ठ उपन्याकार,' के पुरस्कार से नवाजने वाला था । मेरे माता-पिता, भाई जो मुझे पहले ही माफ़ कर चुके थे वो तो मेरे साथ समरोह में जाने वाले थे लेकिन मेरी विशेष प्रार्थना पर, 'हलाहल प्रकाशन,' के द्वारा, 'कालू प्रिंटर्स,' के मालिक खजान चंद को व रूप बाला को मय पति और बच्चो के पुरस्कार समारोह में आने को मना लिया था । हलाहल प्रकाशन तो मुझे पुरस्कार दे ही रहा था लेकिन कालू प्रिंटर्स के मालिक खजान चंद और रूप बाला के दर्शनों की बड़ी इच्छा थी।


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