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Charumati Ramdas

Children Stories Drama Inspirational

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Charumati Ramdas

Children Stories Drama Inspirational

गाते हैं पहिये – त्रा-त्ता-त्ता

गाते हैं पहिये – त्रा-त्ता-त्ता

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इन गर्मियों में पापा को काम से यास्नागोर्स्क शहर जाना था, और जाने के दिन उन्होंने कहा-

 “मैं डेनिस्का को अपने साथ ले जाऊँगा !”

मैंने फ़ौरन मम्मा की ओर देखा। मगर मम्मा चुप रही।

तब पापा ने कहा;

 “उसे अपने स्कर्ट से बांध के रख लो। तुम्हारे पीछे-पीछे जाएगा, हिलगा हुआ।”

मम्मा की आँखें फ़ौरन झरबेरी जैसी हरी-हरी हो गईं। उसने कहा-

 “जो जी में आए, करो ! चाहे तो अन्टार्क्टिका भी ले जाओ !”

उसी शाम को मैं और पापा ट्रेन में बैठकर निकल पड़े। हमारे कम्पार्टमेंट में अलग-अलग तरह के कई लोग थे- बूढ़ी औरतें और सैनिक, जवान लड़के, और कण्डक्टर्स, और गाइड्स, और एक छोटी बच्ची। ख़ूब शोर हो रहा था, बहुत ख़ुशी का माहौल था। हमने खाने के बन्द डिब्बे खोले, होल्डर में रखे गिलासों में चाय पी, और सॉसेज के बड़े बड़े टुकड़े खाए। फिर एक नौजवान ने अपना कोट उतार दिया और सिर्फ बनियान पहने रहा; उसके खूब गोरे हाथ थे और गोल-गोल मसल्स थे, बॉल्स जैसे। उसने ऊपर वाली बर्थ से एकॉर्डियन उठाया और बजाने लगा, वो एक कम्सोमोल (यंग कम्युनिस्ट लीग का सदस्य) के बारे में दुखभरा गीत गाने लगा, कि कैसे वह घास पे, अपने घोड़े के पैरों के पास गिर पड़ा और अपनी भूरी आँखें बन्द कर लीं, और लाल खून हरी घार पर बहने लगा।

मैं खिड़की के पास गया, और खड़ा रहा। मैं देख रहा था कि कैसे अंधेरे में रोशनी झिलमिला रही है, और कम्सोमोल के बारे में ही सोचता रहा, कि अगर मैं भी उसके साथ जासूसी के काम पर घोड़े पे जाता, तो हो सकता है, कि उसे नहीं मारते।

फिर पापा मेरे पास आए, हम दोनों कुछ देर चुपचाप खड़े रहे, पापा ने कहा-

 “तू ‘बोर’ मत होना। हम परसों लौट आएँगे, और तब मम्मा को बताना कि कितना मज़ा आया।”

वो जाकर बिस्तर बिछाने लगे, फिर उन्होंने मुझे बुलाया और पूछा-

 “तू किस तरफ़ सोएगा ? दीवार के पास ?”

मगर मैंने कहा-

 “बेहतर है कि तुम ही दीवार के पास सो जाओ। मैं किनारे पे सोऊँगा।”

पापा दीवार के पास लेट गए, करवट लेकर, और मैं किनारे पे लेटा, मैं भी करवट पे लेटा था, और ट्रेन के पहिए खड़खड़ा रहे थे- त्रत्ता-ता - त्रत्ता-ता।

अचानक मेरी नींद खुल गई, मैं आधा हवा में लटक रहा था और एक हाथ से मैंने छोटी वाली मेज़ पकड़ रखी थी, जिससे गिर न जाऊँ। ज़ाहिर था, कि पापा नींद में ख़ूब हाथ-पाँव चला रहे थे, और उन्होंने मुझे बर्थ के एकदम किनारे पे धकेल दिया था। मैं आराम से लेटना चाहता था, मगर अब नींद मेरी आँखों से उड़ गई थी, और मैं बर्थ के किनारे पे बैठकर चारों ओर देखने लगा।

कम्पार्टमेन्ट में उजाला हो गया था, और चारों तरफ़ से अलग-अलग हाथ और पैर लटक रहे थे। पैर अलग-अलग रंगों के मोज़ों में थे या नंगे थे, और बच्ची का छोटा सा पैर भी था, जो एक छोटे से भूरे ब्लॉक जैसा था।

हमारी ट्रेन बहुत धीरे-धीरे चल रही थी। पहिये घिसट रहे थे, खड़खड़ा रहे थे। मैंने देखा कि हरी-हरी टहनियाँ हमारी खिड़कियों को क़रीब-क़रीब छू रही हैं, और ऐसा लग रहा था, जैसे हम जंगल के कॉरीडोर से गुज़र रहे हैं, मैं ये सब देखना चाहता था, कि ऐसा कैसे हो रहा है, और मैं नंगे पाँव ही वेस्टिब्यूल में भागा। वहाँ दरवाज़ा पूरा खुला था, और मैंने हैण्डल पकड़े और सावधानी से पैर लटका दिए।

बैठने में ठण्ड लग रही थी, क्यों कि मैं सिर्फ शोर्ट्स में था, और लोहे का फ़र्श मुझे एकदम ठण्डा कर रहा था, मगर कुछ देर में वो गरम हो गया और मैं हाथों को बगल में दबाए बैठ गया। हवा धीमी थी, मुश्किल से चल रही थी, और ट्रेन धीरे-धीरे चल रही थी, वो पहाड़ पे चढ़ रही थी, पहिये खड़खड़ा रहे थे, मैं हौले-हौले उनकी धुन में समाता गया और मैंने गाना बना लिया;

चल रही है ट्रेन – कितनी है सुंदरता !

गाते हैं पहिये – त्रा-त्ता-त्ता !

 

बाइ चान्स, मैंने दाईं ओर नज़र दौड़ाई और हमारी ट्रेन का आख़िरी सिरा देखा- वो आधा गोल था, पूँछ जैसा।

तब मैंने बाईं ओर देखा तो मुझे हमारा इंजिन नज़र आया- वो ऊपर-ऊपर रेंग रहा था, जैसे कोई भौंरा हो। मैंने अंदाज़ लगाया कि यहाँ कोई मोड़ है।

ट्रेन के बिल्कुल साथ-साथ पगडंडी थी, बिल्कुल संकरी, मैंने देखा कि इस पगडंड़ी पर एक आदमी जा रहा है। दूर से वो बिल्कुल छोटा नज़र आ रहा था, मगर ट्रेन तो उससे ज़्यादा तेज़ चल रही थी, और धीरे-धीरे मैंने देखा कि ये तो बड़ा आदमी है, उसने नीली कमीज़ पहनी है, और भारी-भारी जूते पहने हैं। इन जूतों से पता चल रहा था कि आदमी चलते-चलते थक गया है। उसने हाथों में कुछ पकड़ा था।

जब ट्रेन उसके पास पहुँची, तो ये अंकल अपनी पगडंड़ी से छिटक कर ट्रेन के साथ-साथ भागने लगा, उसके जूते कंकरों पर चरमरा रहे थे, और भारी जूतों के नीचे से कंकर उड़ कर इधर उधर उड़ रहे थे। अब मैं उसके बराबर आया, उसने तौलिए में लिपटी हुई अपनी जाली वाली थैली मेरी तरफ़ बढ़ाई और मेरी बगल में भागता रहा, उसका चेहरा लाल और गीला था। वो चिल्लाया-

 “थैली पकड़, बच्चे !” और उसने हौले से उसे मेरे घुटनों पे घुसा दिया।

मैंने थैली को कस के पकड़ लिया, और अंकल हैण्डल पकड़ कर आगे झुका, फूटबोर्ड पे उछला और मेरी बगल में बैठ गया-

 “मुश्किल से चढ़ पाया।”

मैंने कहा;

 “ये रही आपकी थैली।”

मगर उसने नहीं ली। उसने पूछा-

 “तेरा नाम क्या है ?”

मैंने जवाब दिया-

 “डेनिस।”

उसने सिर हिलाया और कहा-

 “और मेरे बच्चे का – सिर्योझ्का।”

मैंने पूछा-

 “वो कौन सी क्लास में है ?”

अंकल ने कहा;

 “दूसरा में।”

 “ऐसे कहना चाहिए- दूसरी में,” मैंने कहा।

तब वह खीझते हुए मुस्कुराया और थैली से तौलिया हटाने लगा। तौलिए के नीचे चांदी जैसी चमचमाती पत्तियाँ थीं, और ऐसी ख़ुशबू आ रही थी, कि मैं बस पागल होते-होते बचा। अंकल इन पत्तियों को एक एक करके अच्छी तरह हटाने लगा, और मैंने क्या देखा - रसभरी से पूरा भरा हुआ थैला था। हालाँकि वो बेहद लाल थीं, कहीं कहीं चांदी जैसी भी थीं, सफ़ेद; मगर हर फल अलग अलग था, जैसे बहुत कड़ा हो। मैं आँखें फ़ाड़े रसभरी की तरफ़ देख रहा था।

 “ये हल्की ठण्ड ने इसे ढाँक दिया है, कोहरे से धुंधली हो गई है,” अंकल ने कहा। “चल, खा !”

मैंने एक बेरी उठाई और खा ली, फिर एक और खाई, और उसे जीभ से दबाया, इस तरह एक एक करके खाने लगा, ख़ुशी के मारे मैं पिघला जा रहा था, और अंकल बैठा हुआ मुझे देखे जा रहा था, उसका चेहरा ऐसा हो रहा था, जैसे मैं बीमार हूँ और उसे मुझ पर दया आ रही है। उसने कहा;

 “तू ऐसे एक-एक न खा। पूरी मुट्ठी भर-भर के खा।”      

 और उसने मुँह फेर लिया। शायद इसलिए कि मैं शरमा न जाऊँ। मगर मैं उससे ज़रा भी नहीं शरमा रहा था- मैं अच्छे लोगों से नहीं शरमाता, मैं फ़ौरन मुट्ठी भर-भर के खाने लगा और मैंने फ़ैसला कर लिया कि चाहे मेरा पेट फूट ही क्यों न जाए, मैं इन रसभरियों को ख़तम कर दूँगा।

अपने मुँह में इतना अच्छा स्वाद मैंने कभी महसूस नहीं किया था और दिल को भी इतनी ख़ुशी कभी नहीं हुई थी। मगर फिर मुझे सिर्योझा की याद आई और मैंने अंकल से पूछा-

 “क्या आपके सिर्योझा ने खा लीं ?”

 “कैसे नहीं खाईं,” उसने कहा, “एक समय था, जब खाता था।”

मैंने पूछा-

 “एक समय क्यो ? मेरा मतलब है, क्या आज उसने खा लीं ?”

अंकल ने जूता उतारा और उसमें से छोटा सा कंकर बाहर झटका।”

 “पैर में चुभता है, दर्द पहुँचाता है, देख ! और कहने को है इत्ता छोटा कंकर।”

वो कुछ देर ख़ामोश रहा और कहने लगा-

 “मगर रूह को छोटी सी बात लहूलुहान कर सकती है। सिर्योझ्का, मेरे नन्हे भाई, अब शहर में रहता है, मुझसे दूर चला गया।”

मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ। कैसा लड़का है ! दूसरी क्लास में है, और पापा से दूर भाग गया !

मैंने पूछा-

 “क्या वो अकेला भाग गया, या किसी दोस्त के साथ गया है ?”

मगर अंकल ने ग़ुस्से से कहा-

 “अकेला क्यों ? अपनी माँ के साथ ! उसे, समझ रहा है, पढ़ने का शौक चर्राया ! वहाँ उसके रिश्तेदार हैं, दोस्त हैं, परिचित हैं।।जैसे फ़िल्म में होता है- सिर्योझा रहता है शहर में, और मैं यहाँ। अजीब है ना ?”

मैंने कहा-

 “फ़िकर न कीजिए, ड्राइवर का काम सीख लेगा और वापस आएगा। इंतज़ार कीजिए।”

उसने कहा-

 “बहुत लम्बा इंतज़ार करना होगा।”

मैंने पूछा-

 “और, वो कौन से शहर में रहता है ?”

 “कुर्स्की में।”

मैंने कहा-

 “कुर्स्क में – ऐसे कहना चाहिए।”

अब अंकल फिर से हँसने लगा – भर्राते हुए, जैसे ज़ुकाम हो गया हो, और फिर चुप हो गया। वो मेरी तरफ़ झुका और बोला-

 “ठीक है, बहुत तेज़ दिमाग़ है तेरा। मैं भी पढूँगा। युद्ध की वजह से मैं स्कूल नहीं जा सका। जब तेरी उमर का था, तो पेड़ की छाल उबाल कर खाता था।” वो सोचने लगा। फिर अचानक हाथ हिलाकर जंगल की ओर इशारा करते हुए बोला, “ ये, इसी जंगल में, भाई। इसके पीछे, देख, अभी क्रास्नोए गाँव आएगा। मेरे हाथों से ये गाँव बना है। मैं वहीं उतर जाऊँगा।”

मैंने कहा-

”मैं बस एक और मुट्ठी खाऊँगा, फिर आप अपनी रसभरी बांध लीजिए।”

मगर उसने थैली को मेरे घुटनों पर ही दबाए रखा-

 “बात ये नहीं है। तू ले ले।”

उसने मेरी नंगी पीठ पर हाथ रखा, और मैंने महसूस किया कि कितना भारी और मज़बूत था उसका हाथ, सूखा, गर्माहट भरा, और खुरदुरा, और उसने कस के मुझे अपनी नीली कमीज़ से चिपटा लिया, और मैंने महसूस किया कि वो पूरा गरम है, उससे रोटी की और तमाखू की गंध आ रही थी, और सुनाई दे रहा था कि वो कैसे धीरे-धीरे और शोर मचाते हुए साँस ले रहा है।

उसने इसी तरह कुछ देर मुझे पकड़े रखा और बोला-

 “तो, ऐसा होता है, बेटा। देख, अच्छी तरह रहना।”

उसने मुझे सहलाया और अचानक रास्ते में कूद गया। मैं संभल भी न पाया, और वो पीछे रह गया, और मैंने फिर से सुना कि उसके भारी जूतों के नीचे कंकर कैसे चरमरा रहे हैं।

मैंने देखा, कि वो कैसे मुझसे दूर होने लगा, जल्दी से ऊपर चढ़ाई पे चला गया, नीली कमीज़ और भारी जूतों वाला इतना अच्छा आदमी।

जल्दी ही हमारी ट्रेन तेज़ रफ़्तार से जाने लगी, हवा भी काफ़ी तेज़ हो गई, और मैंने बेरीज़ का थैला उठाया और उसे कम्पार्टमेन्ट में ले आया, और पापा के पास पहुँच गया। 

रसभरी अब पिघलने लगी थी और अब इतनी सफ़ेद नहीं नज़र आ रही थी, मगर ख़ुशबू वैसी ही थी, जैसे पूरा गार्डन हो।

पापा सो रहे थे; वो हमारी बर्थ पे फ़ैल के सो गए थे, और मुझे बैठने के लिए ज़रा भी जगह नहीं थी। कोई भी नहीं था जिसे मैं ये बेरीज़ दिखाऊँ और नीली कमीज़ वाले अंकल के बारे में और उसके बेटे के बारे में बताऊँ। 

कम्पार्टमेंट में सब सो रहे थे, और चारों ओर, पहले ही की तरह अलग-अलग रंगों की एडियाँ लटक रही थीं।

मैंने थैली फ़र्श पे रख दी और देखा कि मेरा पूरा पेट, और हाथ और घुटने लाल हो गए हैं, ये बेरीज़ का रस था, और मैंने सोचा, कि इसे धो लेना चाहिए, मगर अचानक मैंने सिर हिलाया।

कोने में बड़ी सूटकेस खड़ी थी, कस के बंधी हुई, वो सीधी खड़ी थी; कल हमने उस पर खाने के डिब्बे खोले थे और सॉसेज काटा था। मैं उसके पास गया और उस पे कुहनियाँ और सिर टिका दिया, ट्रेन अचानक ज़ोर-ज़ोर से खड़खड़ाने लगी, मुझे कुछ गर्माहट महसूस हो रही थी और मैं देर तक ये आवाज़ सुनता रहा, और फिर से मेरे दिमाग़ में गाना तैरने लगा-

चल रही है ट्रेन – 

कितनी है 

सुं

रता !

गाते हैं पहिये – 

त्रा-

त्ता-

त्ता !


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