एक सहर ओ शाम में
एक सहर ओ शाम में
दिल ए मनम अज़ीज़ ए जां
दिल ए सर मगन मन जान ए जां
कहीं तू मिले किसी रोज़ सहर हो या शाम
आराईश ए हुस्न हो तुम्हारा जलवा ए बाम
जान ए दिल हर सु जा ब जा कू ब कू
मुझे तेरी ही जुस्तजू रहती है
कूचा ए मन हर ए ज़र्रे में एक जौफिगन ( तेज़ किरण ) रौशनी सहर ओ शाम आती है
वोह रौशनी बड़ी शान ओ शौकत से मुझे हिलाती है
यक ब यक ( एक के बाद एक ) सबा ए ख़ामोश तर्ज़ ( हवा की ख़ामोश अदा )
मेरे नगमा ए जा को सुकुत ए साज़ ( ख़ामोश साज ) में तब्दील कर गुज़र जाती है
शाम ए ख़ामोश शब ए तन्हाई में कब गुज़र हो जाती है
जिसका अंदेशा सहर ए रौशनी तक दिल ए मुकीम होता है
सहर की ख़ाक ए ज़रखेज़ ( उपजाऊ मिट्टी की तरह ख़ाक ) मेरे अश्क ए कतरा से सुकून पा कर
उसे शबनम की मन मोहनी बूंद समझ कर फ़ैज़ पा जाती है
ऐ दिल ए जां ए मन
ज़िल मिलाती राह मेरे दर्दों से बा आशना है
ओर एक तू है रग ए जां होकर बे शनाशा है
यह पुर ख़ामोश वीराने
मेरी हर दर्द ए आह मे सहम जाते हैं
मेरे नाला ए दर्द सुन मेरी हर आह को अपनी ख़ामोशी में छुपा लेते हैं
मेरे अश्क को शबनम की बूंद समझ कर खुद में समा लेते हैं
यह वीरानों की शर्द गूं तिरगि को मेरे दर्द की ख़बर है
लेकिन एक तू हम नवां बे दर्द बे रुखा बे ख़बर है
शर्द गूं तिरगि ( डरावनी ठंडी रात का अंधेरा )
दिल का सौज़ जब बढ़ता है तो मेरी हर एक रग जुलज़ जाती है
खूँ पानी होकर चमन ए गुल में पेवस्त हो जाता है
हर एक गुल मेरे खूँ से सींच कर नाला ओ दर्द बयां करता है.
