डायरी दिनांक १८/११/२०२१
डायरी दिनांक १८/११/२०२१
शाम के पांच बजकर पचास मिनट हो रहे हैं ।आज दिन व्यस्तता भरा रहा ।जिसमें मानसिक व्यस्तता अधिक रही। नौकरी में कुछ यह भी अधिक चल रहा है कि किस तरह किसी को व्यस्त रखा जाये। जबकि करने के कामों की किसी को चिंता नहीं है।समय के साथ अनेकों बातें प्रतीकात्मक रह गयी हैं। अब सायंकाल को गोधूल बेला कहा जाता है। जबकि अब गोधूलि का वास्तविक नजारा ही दुर्लभ है। कह सकते हैं कि आवश्यकता आविष्कार की जननी है। मनुष्य जरूरत को प्रधानता देता है। बदलाव का दौर बहुत पूर्व से ही आरंभ होने लगा है।
गायों को केवल चराने के लिये चारागाह या घास के मैदानों में नहीं लेकर जाते थे। अपितु गायों का मुख्य गुण है कि उन्हें घुमाना आवश्यक है। किसी भी गोशाला में गायों को बांध कर रखिये। उन्हें कितना भी पौष्टिक भोजन दीजिये। पर गाय खुश नहीं रहेगी। गाय बहुत हद तक स्वतंत्रता प्रेमी होती हैं।
इसके विपरीत भैंस का आचरण इस तरह का होता है कि वह अनेकों दिनों तक अपने खूंटे से बंधी रह सकती है।आज गायों का पालन बहुत कम हो रहा है। ऊपर से देशी गायें तो दुर्लभ हो रही हैं। जबकि देशी गाय का दूध माॅ के दूध के बाद सबसे उत्तम दूध कहा जाता है।
अनेकों गायें चारागाह से चरकर वापस आ रही हैं तथा उनके खुरों से उठती धूल से वातावरण छाने लगे, ऐसी कल्पना अब देहाती इलाकों में भी संभव नहीं है। वैसे गायों के खुर से उठी धूल भी वातावरण को पवित्र बनाती है।लगभग एक वर्ष नित्य गायों का दर्शन करने के बाद अब गायों का दर्शन दुर्लभ सा हो गया है। पहले भी बताया था कि पड़ोसी अंकल जी ने अपने बच्चों के दबाव में अपनी गायों को गौशाला भिजबा दिया था। हालांकि अभी भी एक गाय है। जो अक्सर घर के भीतर रहती है।
अंकल जी की घर की आंतरिक बातों के अतिरिक्त पड़ोसियों को भी उनके गोपालन से बहुत एतराज था। एक सज्जन तो यह भी कह रहे थे कि रिहायशी इलाके में गायें नहीं पाली जा सकती है।अब सच्ची बात तो यह है कि गाय हमेशा से रिहायशी इलाकों में पाली जाती रही हैं। तथा गायों के बिना कोई भी इलाका रिहायशी माना भी नहीं जाता था।
निश्चित ही अपनी सांस्कृतिक धरोहरों की उचित रक्षा न कर पाने के मुख्य दोषी हम हिंदू ही हैं। जो बातें तो बड़ी बड़ी कर सकते हैं। पर यदि कोई एक भी उन धरोहरों की रक्षा करना चाहता है तो उसे परेशान भी हम ही करते हैं। आज के लिये इतना ही। आप सभी को राम राम।