Harish Sharma

Children Stories Inspirational Children

4.7  

Harish Sharma

Children Stories Inspirational Children

भुने हुए दाने खाने वाले दिन

भुने हुए दाने खाने वाले दिन

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जुलाई के महीना। गाँव के ज्यादातर लोग खेतों में काम पर जुटे हैं। हरिंदर के माता पिता भी दोनों जिमिंदार के खेतों में चावल बोने जाते हैं। कभी कभी हरिंदर भी जाता है। अपनी किताबें भी साथ ले जाता है। जब समय मिलता है तो थोड़ा बहुत पढ़ लेता है। वरना खेत की मेढ़ों पर अन्य बच्चों के साथ घूमता खेलता है। बरगद के पेड़ पर चढ़ना, गिल्ली डंडा खेलना और जामुन, अमरूद , बेर के पेड़ से फल तोड़कर खाना यही सब बच्चों का शुगल था। कुछ बच्चे अपने माँ बाप के साथ धान बोने में लगे रहते। ज्यादा मजदूरी मिलती , और यही तो समय था, चार पैसे कमाने का।

हरिंदर के मुहल्ले में ज्यादातर घर खेत मजदूरों के थे, जिनमे से एक दो फैक्ट्री में काम करने वाले भी थे। जब खेत मे काम न होता तो लोग मनरेगा में काम करते। गांव की नहर, रास्ते साफ करने या सड़क बनवाने का काम करते। कुछ ईट भट्टे पर काम करने लग जाते। 

हरिंदर और उसका दोस्त रेशम दोनों पक्के दोस्त थे। भरी दोपहर में पेड़ों के नीचे खेलना, कच्चे फल तोड़कर खाना ये उनका मनपसन्द काम था। दोपहर ढलते ही वे गाँव मे इधर उधर घूमा करते। स्कूल में छुट्टियां चल रही थी। माँ बाप सुबह सवेरे काम पर चले जाते और शाम को लौटते थे। माँ रोटियां बनाकर डब्बे में रख जाती। हरिंदर आचार या आलू की सब्जी के साथ उन्हें कहा लेता। अब तो वो कुछ कुछ पकाना भी सीख गया था। पिता जी ने उसे चाय, सब्जी और परांठा बनाना सिखा दिया था। वैसे भी इस मुहल्ले के सारे बच्चे ज्यादातर कामों के लिए जल्द ही आत्मनिर्भर बन गए थे। माँ बाप के काम पर जाने के बाद वे ही घर सम्भालते, छोटे बच्चों का ख्याल रखते, घर की निगरानी करते। तैयार होकर स्कूल जाना और बाकि बच्चों को साथ ले जाना उनकी दिनचर्या बन चुकी थी। 

हरिंदर रेशम के साथ आज शाम को सरकारी डिपो से शक्कर और मिट्टी का तेल लेने जाने वाला था। दोपहर तीन बजे से पांच बजे तक राशन मिलना था। कभी चने तो कभी गेंहूँ भी यही से मिलता।हरिंदर और रेशम के पिता उन दोनों से राशन लाने के लिए कह गए थे। अभी तीन बजने में थोड़ा समय बाकी था।दोनों बच्चे हरिंदर के आंगन में कंचे खेल रहे थे।

" यार आज मक्की के दाने या चने भुनाकर खाने को मिल जाये तो मज़ा आ जाय।" हरिंदर ने रेशम से कहा।

"उसमें क्या हैं, वो रास्ते मे भट्टी वाली बीबी बैठती है, उससे ले लेंगे।" रेशम ने कंचे खेलते हुए कहा।

" अच्छा, हर बार वो मुफ्त में नही देगी दाने। पिछली बार उसने कहा तो था कि भुने हुए दाने खाने का शौंक हो तो दाने साथ लाया करो, या फिर पैसे।" 

"चल कोई बात नही, मेरे घर मे मक्की के दाने पड़े है, मैं दो मुट्ठी राशन वाले झोले में डाल कर ले आऊंगा।"

"अच्छा, तो फिर मैं चने ले चलूंगा। माँ ने पिछले राशन में से कुछ बचाकर पीपे में रखे हैं। वही थोड़ा गुड़ पड़ा है, वो भी कागज में ले चलेंगे। गुड़ के साथ चना खाने का मजा ही कुछ और है।" 

" हाँ यार, मेरे तो अभी ही मुंह से पानी आने लगा , तू ऐसा कर एक एक गुड़ की डली तो अभी खा ही लेते हैं, थोड़ा चैन मिलेगा। ऊपर से घड़े का पानी पी लेंगे। कुछ शांति मिलेगी। मैं तो आज दोपहर में मिर्च प्याज वाली चटनी से रोटी खाकर आया था। अब मीठा खाने का बड़ा मन है।" 

" क्यो , शक्कर नहीं मिली फांकने के लिए, भुक्कड़ ?"

" अरे यार , शक्कर तो आज सुबह ही खत्म हो गई वरना खाना खाने के बाद शक्कर की फक्की तो मेरी और पिता जी की आदत है।"

दोनों एक दूसरे की बातें सुनकर हंसने लगे। कितनी छोटी छोटी खुशियाँ थी जिनसे ये अपना जीवन सरलता से जी रहे थे। वरना दुनिया भर में खाने पीने की पचासों दुकानें, एक से एक मिठाई, कही लड्डू, कहीं गुलाब जामुन तो कही कलाकन्द। पर ये स्वाद उनके लिए हैं, जिनके जेबें पैसों से भरी हैं। इस खेत मजदूर के मुहल्ले में मिठाई के नाम पर शक्कर और गुड़ ही सबसे बड़ी नियामत हैं। क्या बच्चे क्या बूढ़े। बर्फी, लड्डू, गुलाबजामुन खाने के लिए मौका तब आता है जब गांव में कोई शादी, विवाह आता है। तब ये बड़े और बच्चे शादी वाले घर मे जी भरकर मिठाई का आनन्द लेने का मजा लूट पाते हैं।

अब हरिंदर और रेशम गुड़ की डली खाकर घड़े से लोटा भर पानी पी चुके थे। दोनों ने बड़ी डकार ली, जैसे पेट को भी राहत मिली हो। अपने अपने घरों से शक्कर के लिए कपड़े वाले झोले और मिट्टी के तेल की पांच लीटर वाला केन उठा लिया।दोनों ने अपने झोलों में दो दो मुट्ठी चना और मक्की के दाने डाल लिए थे। दोनों केन झुलाते हुए राशन वाले डिपो की तरफ चल पड़े। 

राशन डिपो वाली दुकान गांव के बीचों बीच थी। हरिंदर और रेशम दोनों के घर से लगभग आधा पौन किलोमीटर दूर। दोनों अपने मुहल्ले से निकल कर गांव की गलियों को पार करते पहले भट्टी वाली बीबी के पास पहुंचे।

ये भट्टी गांव में बहुत सालों से चल रही है। सड़क की एक तरफ जमीन में गड्ढा खोदकर बनाई भट्टी , उसमें भूसे और कंडों से जलाई आग पर रखी लोहे की कड़ाही। कड़ाही में बालू डालकर उसे तपाया जाता और फिर इस तपती बालू में छोले, मक्की भूनकर एक छलनी से छाने जाते। बीबी के हाथ मे एक बड़ी छलनी होती जिससे वो कच्चे दानों को रेत में घुमा घुमाकर भूनती। मक्की के दाने तो थोड़े से ताप से ही सफेद फूलों की तरह खिलने लगते और उछल उछलकर कड़ाही से बाहर गिरने लगते। आस पास बैठे बच्चे इन्हें लपककर उठा लेते बीबी डांटती।

" सब्र कर लो, मुंह जल जाएगा, निकक्मों। " 

बच्चे न सुनते, उन्हें तो इस खेल में आनन्द आता था। लिफाफे , बर्तन लेकर आस पास खड़े रहते और मक्की के दानों का कौतुक देखते।

" लो बीबी, हमारे भी दाने भून दो, आज अपने दाने लेकर आये हैं हम, मुफ्त में नही मांगेंगे।" हरिंदर और रेशम ने जैसे किसी गर्व से कहा।

" अच्छा, फिर तो आज बड़ी अमीरी छाई है, पर बेटा इसकी भुनाई लूंगी। लाओ इस बर्तन में डाल दो।" 

बीबी के कहते ही दोनों ने बारी बारी से अपने दाने भुनाने के लिए बर्तन में डाल दिये। बीबी ने जब देखा कि ये तो खुद ही मुट्ठी भर दाने लेकर आये हैं तो उसने बिना कोई दाना निकाले सारे दाने भूनकर उन्हें मुस्कुराते हुए उनके झोले में डाल दिया।

" आप बहुत अच्छी हो बीवी।" दोनों बच्चों ने कहा।

" जीते रहो, जाओ अब अपना काम करो " बीबी कहकर अपने काम मे लग गई।

राशन की दुकान की तरफ जाते हुए दोनों भुने हुए दाने चबाते, एक दूसरे से आदान प्रदान कर रहे थे। दानों के भुने स्वाद ने जैसे उनके शरीर मे उत्साह भर दिया था।

" आ गए शरारतियों, आ जाओ। लाओ निकालो अपना राशन कार्ड, एंट्री करके समान दें फिर तुम्हे।" राशन की दुकान के मालिक ने दोनों बच्चों को देखकर कहा।

दुकान मालिक का बेटा हरिंदर और रेशम के स्कूल में ही पढ़ता था। वो उनसे दो कक्षा आगे था। पर दोनों उसे दुकान पर टाफी के लिए पटा लेते थे। वो दुकान पर ही अपने पिता के साथ काम करवाता। उसका नाम हरदीप था।

हरदीप जब दोनों के मिट्टी के तेल वाले केन भर रहा था तो वो धीरे से बोले , "भाई आज इमली वाली टाफी देना, अब संतरे वाली खा खाकर मन भर गया है।"

"ओ यार , ले लेना इमली वाली टाफी, कोई न सब्र रखो, अभी तो मिट्टी के तेल वाला कप है मेरे हाथ में , कहो तो इसका एक एक घूँट चखा दूं।" हरदीप कहकर हंस पड़ा।

दोनों झेंप गए। हरदीप बड़ा था, और दोनों उसकी इज्जत करते थे। हरदीप के पिता जी कंजूस थे। टाफी तो हरदीप की बदौलत ही मिलनी थी उन्हें और वो कभी उन्हें खाली नही मोड़ता था। वे कभी कभार हरदीप को जामुन लाकर देते, कभी बेर, तो कभी अमरूद। इस प्रकार इन सबमें लें देन चलता रहता।

दोनों ने अपने झोलों में शक्कर डलवाई, राशन कार्ड भी झोले में डाला और चुपके से दुकान से निकले ही थे कि उनके कानों में हरदीप के पिता जी की आवाज पड़ी।

" बेटा मुझे उल्लू मत बनाया कर, मैं जानता हूँ कि तू उन्हें चोरी छिपे टाफी देता है, पर कोई बात नहीं मैं भी उन्हें शक्कर डालते समय हिसाब पूरा कर लेता हूँ। समझा कि नही। घोड़ा घास से दोस्ती करेगा तो खायेगा क्या ?, सयाना बन।"

हरिंदर और रेशम उनकी बास्त सुनकर हंस दिए और हँसते खेलते घर की ओर चल दिये। उनकी जेबें अब भी भुने हुए दानों से महक रही थीं।


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