Kumar Vikrant

Others

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भटकती प्रेत आत्मा

भटकती प्रेत आत्मा

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भटकती प्रेत आत्मा की तलाश मुझे आज अपने घर से बहुत दूर इस वीराने में ले आई थी, दूर-दूर तक कोई आबादी नहीं थी। इक्का-दुक्का अर्धनिर्मित मकान यदा-कदा दिखाई पड़ जाता था। दूर-दूर तक इंसान तो क्या पंछी भी नजर नहीं आ रहे थे, ऐसे में जगीरा के बारे में पूछूँ तो किस से पूछूँ। जगीरा ही वो इंसान था जिसने मुझे भटकती प्रेत आत्मा दिखाने की उम्मीद जगाई थी।

शहर से १० किमी दूर इस उजाड़ बस्ती को देखकर मन में बहुत ही खौफ हो रहा था, सोच रहा था कि कोई बदमाश मिल गया तो मेरी साईकिल तो छीन ही लेगा और पिटाई तो पक्का करेगा; आखिर मै १४ साल का लड़का बदमाशों से मुकाबला कैसे कर सकता था।

कुछ किमी साईकिल बेमकसद चलाते हुए मैं समझ गया था अब किसी न किसी को तलाश करना ही पड़ेगा जो मुझे जगीरा तक ले जाये या उसका ठिकाना बता सके। कुछ दूर और चलने पर एक अर्धनग्न १०-१२ साल का लड़का दिखाई दिया जो भागते हुए सड़क पार कर रहा था, इस से पहले वो मेरी नजर से ओझल हो जाता मैं चिल्ला कर बोला, "ओय रुक जा, मेरी बात सुन।"

उसने भागते हुए मेरी तरफ देखा लेकिन रुकने का उसका इरादा नहीं था। मैंने साईकिल उसके पीछे दौड़ा दी और जोरदार आवाज में चिल्लाया, "अबे रुक जा मैं तुझे कुछ नहीं कहूंगा; बस कुछ पूछना है तुझ से।"

वो फिर भी ना रुका तो मैंने साईकिल तेज चला कर उसके सामने खड़ी कर दी, लेकिन वो फिर भी रुका नहीं बस विपरीत दिशा में भाग लिया। अब तो हद हो गयी थी मैंने साईकिल गिरायी और उसके पीछे दौड़ पड़ा, और जल्दी ही उसके नजदीक पहुँच गया और दौड़ते हुए उसकी बाजु पकड़ने की कोशिश की लेकिन वो मेरे हाथ से मछली की तरह फिसल गया।

मैं उसे पकड़ने की हर कोशिश कर रहा था लेकिन वो मेरे हाथ नहीं आ रहा था। अचानक वो एक ठुंठे पेड़ के तने से टकरा कर रेत में गिरा और उससे टकरा कर मैं भी जोरदार तरीके से नीचे गिरा। दोनों जल्दी ही उठ भी गए धुल-धूसरित, पसीने से तरबतर।

"क्या है एक कंचे के लिए जान लेगा मेरी ?" वो लड़का गुर्राकर कर बोला और उठकर एक मोटा कंचा मेरे हाथ पर रख दिया और चीख कर बोला, "जा जाकर दे दियो झब्बू को, अगर हार बर्दाश्त नहीं है तो कंचे खेलता ही क्यों है?"

"अबे क्या बकवास है ये? कौन झब्बू, कैसे कंचे? मैंने उठकर वो मोटा कंचा उसके हाथ पर रख दिया।

"तुझे झब्बू ने नहीं भेजा?"

"नहीं।"

"तो मेरे पीछे क्यों दौड़ रहा था?" उसने कंचा अपने निक्कर की जेब में रखते हुए पूछा।

"अबे भाई मुझे जगीरा के घर जाना है, उसी का पता पूछना था।" मैंने दूर पड़ी हुई अपनी साईकिल को देखते हुए कहा।

"कौन जगीरा? यहाँ कोई जगीरा नहीं रहता।" उसने बिना सोचे समझे तपाक से जवाब दिया और अपने बदन पर लगे रेत को अपने हाथों से उतारने लगा।

"भाई पता तो यही का बताया था।" मैं विचारपूर्ण मुद्रा में बोला।

"यहाँ का, दंगल पुरी का? उसने अपना सर खुजाते हुए मेरी तरफ देख कर पूछा।

"हाँ…….तभी तो तेरा मेरा दंगल होते-होते बचा।" मैंने बुदबुदा कर कहा।

"क्या?" उसने मेरी बात को समझते हुए पूछा।

"हाँ भाई, यही का पता बताया था।" मैंने अपनी साईकिल की और बढ़ते हुए कहा।

"क्या करता है ये जगीरा? लड़के ने मेरे पीछे-पीछे आते हुए पूछा।

"रद्दी वाला है वो।" मैंने उस लम्बे पतले काले भुजंग जैसे जगीरा की शक्ल याद करते हुए कहा।

"इधर कोई रद्दी वाला नहीं रहता लेकिन एक कबाड़ी जरूर रहता है भूत पुरी।" उस लड़के ने अपना सर खुजाते हुए बताया।

भूत पुरी!" मैंने आश्चर्य के साथ पूछा।

"हाँ यहाँ से दो किलोमीटर दूर है, सीधा चला जा, हलवाई वाली पुलिया पर जाकर किसी से पूछ लेना नब्बू कबाड़ी कहाँ रहता है।" उस लड़के ने उत्तर दिशा की और इशारा करते हुए बताया।

"भाई तू साथ चल, तुझे वापिस यहीं छोड़ दूंगा।" मैंने उस लड़के को अपनी साईकिल की और इशारा करते हुए कहा।

"चल तू भी क्या याद करेगा………." कहकर वो लड़का मेरी साईकिल के कैरियर पर लद गया।

"तेरा क्या नाम है?" मैंने साईकिल चलाते हुए उस लड़के से पूछा।

"बब्बू……….." उस लड़के ने खे-खे करते हुए बताया।

"अबे कौन सी दुनिया है ये………..झब्बू, नब्बू, बब्बू, दंगल पुरी, भूत पुरी, अजीब-अजीब से नाम है तुम सबके।" मैंने हँसते हुए पूछा।

"हँसता क्यों है, क्या खराबी है इन नामो में? तू बता कौन सी दुनिया से आया है तू और क्या चाहिए तुझे यहाँ से?" बब्बू ने चिढ भरे लहजे में पूछा।

"अबे बुरा क्यों मानता है, और कितनी दूर है नब्बू कबाड़ी का घर?" मैंने साईकिल की गति बढ़ाते हुए पूछा।

"हलवाई की पुलिया के सामने है दुकान उसकी, बस थोड़ी दूर है यहाँ से।" बब्बू ने ऊँगली से इशारा करते हुए कहा।

मुश्किल से तीन मिनट बाद हम नब्बू कबाड़ी की दुकान पर खड़े थे। दुकान के सामने एक चारपाई पर तहमद और बनियान पहने एक पहलवान जैसा आदमी लेटा हुआ एक धज्जिया उड़ा हुआ हिंदी उपन्यास पढ़ रहा था।

"नब्बू ये तेरे से मिलने आया है।" बब्बू ने बिना किसी भूमिका के चिल्ला कर कहा।

"क्या है? क्या चाहिए तुझे?" नब्बू ने अपनी कर्कश आवाज में पूछा। ना तो उसने उठने की चेष्टा की और ना ही उपन्यास से ध्यान हटाया।

"जगीरा से मिलना है।" मैंने जल्दी से कहा।

"क्या बोला, जगीरा तो क्या उसके बाप की औकात नहीं जो मेरे इलाके में आ जाये। कह दियो उससे कि उसका बाप नब्बू अभी जिन्दा है।" नब्बू चारपाई पर बैठते हुए गुर्रा कर बोला।

"अंकल मुझे तो उसका अड्रेस चाहिए था।" मैंने डरते हुए कहा।

"जा चला जा सदर कोतवाली, वही की पुलिस उठा कर ले गयी थी कल उसे। चरस के साथ पकड़ा गया था वो, जा कोतवाली वाले ही बताएँगे तुझे उसका पता।" कहकर नब्बू पुनः चारपाई पर लेट गया और अपने उपन्यास में खो गया।

बब्बू फिर उछल कर मेरी साईकिल पर बैठ गया और मैंने निराश होकर घर वापिस जाने का तय कर लिया। और साईकिल वापसी के रास्ते की और मोड़ दी।

"क्या चाहिए था तुझे जगीरा से?" बब्बू ने तेज़ आवाज़ में पूछा।

"भटकती प्रेत आत्मा।" मैंने उदासी से जवाब दिया।

"वो क्या होता है?" बब्बू ने पूछा।

"कॉमिक्स।" मैंने संक्षिप्त सा जवाब दिया।

"कॉमिक्स!" बब्बू ने आश्चर्य के साथ पूछा।

"अबे चित्रकथा, जिसमे कहानी चित्रों से बताई जाती है।" मैंने चिढ़ते हुए कहा।

"तो जगीरा के पास तू इसी चक्कर में जा रहा था? यही बात है ना?" बब्बू ने पूछा।

"अबे तू नहीं समझेगा, 'भटकती प्रेत आत्मा' चार पार्ट का कॉमिक्स है और मेरे पास इसका पहला पार्ट मेरे पास है बाकी तीन लेने के लिए जगीरा के पास आया था।" मैंने समझाते हुए कहा।

"जगीरा के पास वो कॉमिक्स है?" बब्बू ने उत्सुकता से पूछा।

"भाई ये मुझे मंगल बाजार के किताब बाजार में किताबें बेचता मिला था और मैं उन तीन कॉमिक्स के लिए इस बाजार में भटक रहा था। जगीरा एक किताब वाले को बहुत सारे कॉमिक्स बेच रहा था तो मैंने उत्सुकतावश उससे पूछ लिया। उसने कहा उसके पास ढेरो कॉमिक्स है हो सकता है उनमे 'भटकती प्रेत आत्मा' भी हो और इसी चक्कर में मै उसके बताये अड्रेस पर चला आया।" मैंने अपना दुखड़ा और १०-१२ साल के लड़के के सामने रो दिया।

"अरे पहले बोलना था न अपना नक्कू भाई किताबे किराये पर देता है उसके पास जरूर होगी तेरे वाली किताब।" बब्बू ने मेरी पीठ पर हाथ मरते हुए कहा।

"रहने दे तुम सारे जगीरा, झब्बू, नब्बू, बब्बू झूठे हो कुछ नहीं है यहाँ, चल अब साईकिल से उतर कर रपट ले।" मैंने बब्बू को झिडकते हुए कहा।

"तू मान या ना मान, नक्कू भाई के पास बहुत सारी किताबे है।" बब्बू साईकिल से उतरते हुए बोला।

मैंने एक पल के लिए सोचा और बोला, "चल ले के चल मुझे उसके पास, तेरी बात झूठ निकली तो बेटे मरूंगा बहुत।"

"अबे हट इस एरिया में किसी में दम नहीं है जो मुझे हाथ लगा सके, चल ले कर चलता हूँ तुझे नक्कू के पास।" बब्बू ने ताल ठोकते हुए कहा और फिर मेरी साईकिल पर लद गया।

उसके कहे अनुसार मैं संकरी गलियों से गुजरता हुआ एक चौड़ी गली में पहुंचा जहाँ एक मकान के सामने हाथ से लिखा साइन बोर्ड लगा था, उस पर लिखा था- नकुल बुक स्टोर।

"कुण्डी खड़खड़ा।" बब्बू ने बंद दरवाजे की तरफ इशारा करते हुए धीमी आवाज में कहा।

मैंने आगे बढ़कर कुण्डी खड़खड़ा दी। कुछ देर बाद दरवाज़ा खुला और मैथ की एक मोटी किताब हाथ में लिए आँखों पर नजर का चश्मा लगाए मेरी कद-काठी का एक लड़का बाहर आया।

"क्या चाहिए?" उसने अर्धनग्न बब्बू और मुझे हिकारत के साथ देखते हुए पूछा।

"इसे किताब चाहिए।" बब्बू ने मेरी और इशारा करते हुए कहा।

"कौन सी किताब?" अब वो लड़का मुझसे पूछ रहा था।

मैंने उसे बताया।

"बहुत मुश्किल है उस कॉमिक्स के बचे पार्ट मिलना, आ मेरे पास और बहुत से कॉमिक्स है, खरीदोगे तो सस्ते में दे दूंगा; आ अंदर आ मेरे साथ।" उस लड़के ने मुझे अंदर आने का रास्ता देते हुए कहा।

अंदर बरामदे में एक बड़ा सा संदूक था जिसमें ढेरो कॉमिक्स भरे थे। उसी संदूक के साथ एक अलमारी थी जिसमें ढेरो नावेल भरे हुए थे।मैंने कुछ देर उलट-पलट कर चार कमांडो कॉमिक्स निकल लिए और थोड़ा मोल-भाव के बाद उनकी कीमत चुका दी।पैसा जेब में जाते ही उस लड़के के हाव-भाव बदल गए और उसने हम दोनों को पानी पिलाया और बोला, "तेरी समस्या का एक समाधान है मेरे पास।"

"वो क्या।" मैंने पूछा।

"देख ये पब्लिशर कॉमिक्स के राइटर और आर्टिस्ट को कुछ कॉम्प्लिमेंट्री कॉपी देते है, जो उनके पास ऐसे ही पड़ी रहती है। तू उन्हें चिठ्ठी भेज कर पूछ ले, हो सकता है कुछ दाम लेकर वो तुझे वो कॉमिक्स दे दे।" उस लड़के ने मेरी और देखते हुए कहा।

"ये कॉमिक्स एच राइडर हैगर्ड के नावेल शी पर बेस्ड है।" मैंने जवाब दिया।

"अबे भाई हैगर्ड को मरे हुए ज़माने बीत गए, हिंदी में किसने ट्रांसलेट की थी?" उस लड़के ने पूछा।मैंने ट्रांसलेटर का नाम बताया।

"वो तो फेमस राइटर है, ले अभी देता हूँ उसका पता।" कहकर वो उस राइटर के नावेल निकाल लाया और उनमें से ढूंढ कर उसका अड्रेस मुझे दे दिया।

मैं धन्यवाद करके उठ खड़ा हुआ।

"सुन भाई इसे चिट्ठी लिखेगा तो एक टिकट लगा रिटर्न लिफाफा भी भेज दियो अपना अड्रेस लिख के नहीं तो कभी जवाब नहीं देगा ये।" उस लड़के ने मुझे समझाते हुए कहा।

उसके बाद मैं और बब्बू बाहर आ गए और फिर कभी न मिलने के लिए बिछड़ गए।


चिट्ठी ना कोई संदेश 

एक सप्ताह के अंदर मैंने उन लेखक महोदय को एक एनवलप में अपना पता लिखा टिकट लगा एनवलप रखकर चिट्ठी भेज दी। इस काम में मेरे कॉमिक्स प्रेमी दोस्तों और भाई ने पूरा साथ दिया। लेटर रजिस्टर्ड डाक से एक्नॉलेजमेंट लगाकर भेजा गया और शुरू हुआ अनवरत इंतजार का एक लंबा सिलसिला।

८० के दशक में पैदा हुए सब लोग कभी न कभी इस कॉमिक्स प्रेम के शिकार जरूर हुए है, हम सब गली के लड़के भी हुए। हम सभी मध्यमवर्गीय परिवारों के बच्चे थे सबके पिता सरकारी नौकरियों में थे और लिमिटेड इनकम होने के कारण कॉमिक्स जैसी लक्जरी अफोर्ड नहीं की जा सकती थी। तो घर में कोर्स की बुक्स के अतिरिक्त कोई बुक अलाउ नहीं थी। लेकिन हमारे चारो तरफ इतनी कॉमिक्स लाइब्रेरी थी की हम चाह कर भी इनके जादू से ना बच सके और शुरू हुआ चोरी से कॉमिक्स पढ़ने का एक अनवरत सिलसिला। ये कॉमिक्स खरीदे भी जाते थे और रेंट पर भी लाकर पढ़े जाते थे।

ऐसे में एक दिन मिला 'भटकती प्रेत आत्मा' नाम के कॉमिक्स का पहला भाग। ये कॉमिक्स इंग्लिश लेखक एच राइडर हॅगर्ड के नावेल 'शी' पर आधारित था। जिसे लेखक ने किसी अन्य व्यक्ति के अनुभवों पर केंद्रित करके लिखा था। कॉमिक्स का चित्रांकन जादुई था। हम मल्टी कलर कॉमिक्स पढ़ने वाले उस सिंगल कलर कॉमिक्स के दीवाने हो चुके थे और उसके अन्य पार्ट्स के लिए कुछ भी करने को तैयार थे।

कुछ दिन बाद उस लेखक को भेजी उस चिट्ठी का एक्नॉलेजमेंट वापिस आया और फिर इंतजार शुरू उस महान लेखक के जवाब का। डाकिया रोज आता रहा लेकिन उस महान लेखक का जवाब नहीं आया। हो सकता है कुछ बच्चों का मूर्खता भरा लेटर उसे केवल रद्दी में फेंके जाने लायक लगा हो।

हम सब दोस्त बहुत निराश थे और फिर सब रुटीन से साप्ताहिक बुक मार्किट जाने लगे लेकिन 'भटकती प्रेत आत्मा' के अन्य पार्ट ना मिले।


जिंदगी इम्तिहान लेती है 

भटकती प्रेत आत्मा का पहला पार्ट खरीदे हुए दो साल गुजर चुके थे मैं १२ में आ गया था और फिजिक्स, केमिस्ट्री और मैथ का स्टूडेंट होने के कारण अब मेरे पास ज्यादा समय नहीं बचता था कॉमिक्स या अन्य बुक्स के लिए। स्कूल और ट्युसन ही अब मेरी जिंदगी बन चुकी थी, करियर की चिंता भी सर उठाने लगी थी।

पूरे साल की पढ़ाई के बाद बोर्ड के एग्जाम सर पर थे ट्युसन बंद, स्कूल जाना बंद बस बोर्ड एग्जाम की तैयारी सर पर चढ़ी हुई थी। फाइनली बोर्ड एग्जाम शुरू हुए और एग्जाम भी उम्मीद के खिलाफ अच्छे होने लगे। लेकिन एक शाम जब मैं एग्जाम देकर घर आया तो मेरा छोटा भाई बेताबी से मेरा इंतजार कर रहा था।

मेरे आते ही वो बोला, "भाई 'भटकती प्रेत आत्मा' के चारो पार्ट एक जिल्द में बंधे रखे है मंगल बुक बाजार में।"

"कितने में मिलेंगे?" मैंने उत्साह में भरकर पूछा।

"पचास की है पूरी जिल्द।" छोटे भाई ने बताया।

"बहुत महंगे दे रहा है, चारो की प्रिंटेड कीमत २० से ज्यादा नहीं है।" मैंने एग्जाम खर्च के लिए मिले १०० रूपये में से ५० छोटे भाई के हाथ पर रखते हुए कहा।

"वहां एच राइडर हॅगर्ड की बुक 'किंग सोलोमंस माइंस पर बेस्ड कॉमिक्स 'सुलेमान का खज़ाना भी रखा है, चार पार्ट है उसके। वो भी ५० में ही दे रहा है।" छोटे भाई ने उत्साहित होते हुए कहा।

"चल वो भी ले लेना।" मैंने बचे ५० भी छोटे भाई के हाथ पर रखते हुए कहा।

"पता नहीं अब वो कॉमिक्स मिलेंगी भी या नहीं?" छोटे भाई ने संशय के साथ कहा।

"ऐसा क्यों?" मैंने पूछा।

"भाई मैंने वो दोनों कॉमिक्स दोपहर देखी थी लेकिन मेरे पास इतने रूपये कहाँ थे, अब जा के देखता हूँ मिलती है या नहीं, हो सकता है किसी और ने खरीद ली हो।" कहते हुए छोटा भाई साईकिल लेकर मंगल बाजार की और निकल गया।

मेरा अगले दिन एग्जाम था इसलिए मेरा जाना सम्भव न था। मंगल बाजार घंटाघर पर लगा करता था और उसी बाजार में तीन या चार वेंडर पुरानी बुक्स फुटपाथ पर लगाकर बेचते थे। और वही से हमे अनमोल कॉमिक्स प्रिंटेड प्राइस से ज्यादा रेट पर मिलते थे। लेकिन हम फिर भी खरीद ही लेते थे। घंटाघर हमारी कॉलोनी से पांच किलोमीटर दूर था और साईकिल से वहां जाने और वापिस आने में कम से कम एक घंटा तो लगता ही था।

उस दिन वो जिंदगी का सबसे लांगेस्ट ऑवर था। उम्मीद और बेउम्मीद में झूलता हुआ मैं छोटे भाई का इंतजार कर रहा था। खैर वो आया और उसके हाथ में वो दोनों जिल्दे थी जिनमे वो आठ कॉमिक्स बंधे थे।

हम दोनों उस समय दुनिया के सबसे खुश इंसान थे हमारे हाथ वो खज़ाना लग गया था जिसके लिए हम दो साल से बेचैन थे। इस समय उन दोनों कॉमिक्स का मालिक मेरा छोटा भाई था क्योंकि मैं तो एग्जाम पूरे होने से पहले उन कॉमिक्स को छू भी नहीं सकता था। और हुआ भी यही, वो कॉमिक्स मुझे एग्जाम के बाद ही पढ़ने को मिले।


कॉमिक्स और ब्लैक मार्किट 

वो आठो कॉमिक्स आज भी मेरे पास है और उनके पेजो के खराब होते देखकर दुखी हो जाता हूँ। उस दौर के कॉमिक्स अब कुछ ब्लैक मार्किट वालो की तक़दीर संवार रहे है वो इन कॉमिक्स को हजारो रूपये में बेचकर कॉमिक्स के चाहने वालो का खूब शोषण कर रहे है।

'भटकती प्रेत आत्मा' के वो महान लेखक अब फेसबुक पर मेरे मित्र है लेकिन मैं कभी भी इतनी हिम्मत नहीं जुटा पाया कि उन्हें बता सकू की उन्हें भेजे उस लेटर का जवाब ना पाकर हम कितने निराश हुए थे।



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