अपना आशियाना "
अपना आशियाना "
'आकृति ,मुझे मालूम है कि मेरे लिखे को अग्नेय दृष्टि से देख,पढ़ रहे हैं।कह रहे हैं कि आधी आबादी के बढ़े हिस्से को ,इस तरह के स्वप्न नहीं आते, जिन्हें आते हैं, उनमें अधिकांश को रास्ते नहीं मिलते।
जिन्हें रास्ते मिलते हैं, उन्हें ख़ुब जुझना पड़ता है.... शायद आधी-आबादी का हज़ारवां हिस्सा अपने एकांत का सुख महसूस कर पाता है।
"वर्जीनियावूल्फ"का 'अपने कमरे'का प्रशन आज भी ज़िन्दा है। "मेरा घर कहाँ है" ?या फिर "स्त्री का अपना घर क्यों होना चाहिए" ?
आकृति मुझे ,अच्छा लगा कि तुमने हर परिस्थिति से ताक़त बटोरी, पढ़ -लिखकर निर्णय का विवेक जागृत कर सकी।
अपने होने वाले पति से मिले धोखे को तुमने आंख बंद कर स्वीकार नहीं किया, विवाह से इंकार कर "अपनी राह " ख़ुद चुनी ।
यह बढ़ी बात थी, बढ़ा निर्णय था कि "अपनी छत"की तलाश, किसी 'महानगर' में बड़ी सी नोकरी और ऐशो-आराम की ज़िन्दगी मेंं नहीं तलाशी....
"तुमने अपनी शिक्षा का उपयोग 'सुदूर गांव' के निचले तबके को शिक्षित, जागृत और विवेक सम्पन्न बनाने में किया ...।
सच, कहा जाए तो तुम्हारी पूंजी है,वारिस भी ,..एक बढ़ी फौज.. जो तुम्हारे "दिए "का आलोक अपनी ओर आने वाले अंधेरे के खिलाफ लड़ने में उपयोग कर रही है...........।
"आकृति तुम्हारा धैर्य और आत्मविश्वास देखकर लगा स्त्रियाँ कभी कमज़ोर नहीं होती ,सिर्फ उनको कमज़ोर हमारा ये पुरूष प्रधान समाज करता है ,हमारे यहाँ आज भी नारी को 'अबला, बेचारी, और अधीन समझता हैं ।
समाज में पितृसत्तात्मक व्यवस्था ने स्त्री को जन्म से ही अधीन बना दिया ,बच्चों को बाप का गोत्र मिलेगा, जिस मां ने नो महिने पेट में रखा ,अपनी जान की बाज़ी लगाकर बच्चे को दुनिया में लाई ,उसका कोई हक़ नहीं ....
"लेकिन अब की स्त्री किसी के अधीन नहीं ,वो तुम जैसी सशक्त और "अपनाआशियाना"ख़ुद तलाश रही है......