आक्रोश
आक्रोश
मैंने सुना है नदियों के नाम होते हैं। वो नदियां उँचे बर्फीले पहाड़ों से निकलती है।उनकी पूजा भी होती है....फूल चढा कर और दीप जला कर। मेरा कोई नाम नहीं है कभी मुझे लोग पहाड़ी नदी कहते हैं और कभी कभी तो नाला भी कह देते हैं। वैसे महत्व पाना तो अच्छा लगता है पर फूल और दीप और खास कर के उन के तेल से मैं गंदी हो जाऊंगी, इसलिए अच्छा है कि लोग मेरी पूजा नहीं करते....अब कुछ लोग यह भी कह सकते हैं कि मैं यह ईर्ष्या वश कह रही हूँ।
मेरा जन्म पठार के ऊपर के जलाशय से गिरते हुए झरने के रूप में हुआ।और भी कई छोटे बड़े झरने जगह जगह पर मुझ में आ के मिलते हैं, इनमे से कुछ गर्मी में सूख जाते हैं और बारिश में तो सभी का पानी बढ़ जाता है।
मेरा शुरुआती सफर घने जंगल में, पथरीले घुमावदार रास्तों में से होता है। मेरे आसपास के लोग भी मेरी तरह गुमनाम पर बिल्कुल निर्मल हैं, इन्हें भी किसी पूजा या महत्व की लालसा नहीं है।हाँ, पलाश के सुर्ख लाल घने जंगलों के बीच जब मैँ आगे बढती हूँ तो कुछ लोगों को लाल रंग बहुत पसंद है और ये एक दूसरे को भी लाल सलाम करते हैं। पर ये लोग किसी चीज़ से काफ़ी नाराज़ हैं। ये कभी कभी मेरे किनारे आते हैं, बन्दूकें साफ करते हैं और खून की बातें करते हैं क्योंकि वह भी लाल है।क्या पलाश के जंगलों को भी सीमेंट के जंगलों से कोई आक्रोश है जो इस तरह अपना सर्वस्व मिटा कर, सब पत्ते गिरा कर लाल हो गया है ?
जब मैँ आगे बढती हूँ तो बढती उम्र के कारण मैँ चौड़ी और आलसी हो गई हूँ।अब मेरे दूसरे किनारे फिर कुछ लोग बन्दूकें साफ करते हुए आक्रमण की बातें करते हैं पर इनमें एक दंभ है आक्रोश नहीं। बड़ी नदियों की तरह मैँ भी विभिन्न विचारधाराओं के बीच सीमा निर्धारित करती हूँ।
आगे का सफ़र और कठिन हो गया है जब कि अब मैँ काफी बड़ी हो गई हूँ। मुझ में लोग सब तरह का कचड़ा फेंक देते हैं। एक बार तो एक पुल से एक आदमी ने अपने आप को ही फेंक दिया शायद वो तथाकथित सभ्यता के लिए कचरा हो। मेरी सतह अभी भी उबर खाबर और पथरीली है,हाँ पत्थर अब उतने नुकीले नहीं रहे।
एक दिन अचानक मुझे मेरे बचपन का साथी करिया दिखा। उन घने जंगलों में पत्तों से छन के आती धूप में वह घंटो मेरे किनारे खेलता था।बड़ा हुआ तो अपने परिवार से लड़ कर, सुख्मनी को गर्भवस्था में छोड़ कर वह शहर चला आया कहता था जंगल में कुछ नहीं है। शायद उसे बड़े कारखाने में नौकरी मिल गई है। पर वह ये क्या बना रहा है गोल जैसी सुरंग कारखाने से मुझ तक ? मैँ भी उचक उचक कर देख रही थी। बनने के कुछ दिन बाद ही उसमें से ऐसी सडांध वाली वस्तु आई कि मेरा साँस लेना दूभर हो गया। मेरी मौत तो निश्चित है पर मैं इस से संघर्ष जरूर करूंगी अपना आक्रोश जरूर व्यक्त करूंगी।
और अगली ही बरसात मैंने उफान के साथ सारी गन्दगी, सारा कूड़ा, सारी सड़ाध घर घर तक पहुंचा दी और जितनी तबाही मचा सकती थी, मचाई।