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Mahendra Kumar Pradhan

Abstract

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Mahendra Kumar Pradhan

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यादें

यादें

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यादें......

हां उन बीते दिनों की यादें।

जब उस मोहब्बत में थी नहीं

कोई रुकावट या मिलने की हदें।

तेरे मेरे बीच खींची न थी किसी ने


कायदे और नियमों की शरहदें।

किसीको भी खबर न था,

वह मधुर गुप्त प्रेम गाथा।

न तेरे घरवालों को, न मेरे घरवालों को

और न ही समाज के रखवालों को।


यादें......

हां उन मिलन के दिनों की यादें।

इसी हृदय वान वृक्ष के नीचे

कभी गोदी में,कभी चिपक के पीछे

करती थी तुम कितनी फरियादें।


कभी शाम ढल जाने के बाद,

तो कभी चांद निकल जाने के बाद,

छुप छुप कर मिलते थे कितने

करते थे कितने मृदु स्वर में बातें,

कि कोई सुन न ले हमारा संवाद।


यादें........

हां प्रीत की वो सुनहरी यादें।

हमारी सच्ची मोहब्बत के सांचे में

वो वृक्ष भी आ गया दिल के ढांचे में

छूकर हमारे रूह को पाया जो आकार


ये हमारे दिल ने की है पारस सा चमत्कार।

पर आज जब मै अकेला आता हूं

उस प्रेमतरू के कोमल छाई में

मेरे नैनों के अश्कों से उसे सींचता हूं

अकेलेपन,जुदाई के गम और तन्हाई में।


यादें.......

हां वो हसीन रूपहली यादें।

आज सुनता नहीं हूं वो फरियादें

जो तुम करती थी मुझसे एकान्त में।

करता हूं इंतज़ार फिर भी इसी तरूतले


नज़र जमाए चारो छोर दूर दिशांत में।

पर तुम आती नहीं हो

फिर भी मैं आता हूं इक आश लिए।

और ये वृक्ष पूछता है मुझसे

आजकल तुम आती नहीं मिलने किसलिए ?


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