वज़ह मिल गई !
वज़ह मिल गई !
खयालों में खोई, बिखरी सी जिन्दगी
उनके आने से जैसे खुशी मिल गई,
गुम रहा दिल किसी अक्स के नूर में
बुन रहा ताना बाना बिना डोर के
थी उदासी बहुत मन भी उलझा रहा,
आइना भी ग़मगीन और गुमसुम हुआ
कतरनों को सहेजकर ख्वाब बुनती रही
ख्वाहिशों की तलब फिर भी कम न हुई
लड़खड़ाते लरज़ते कदम चल पड़े,
थोड़ी राहत मिली और गुल खिल गए
अक्स का धुंधलापन भी छँटने लगा,
बेसब्री की थोड़ी वजह कम हुई
दरकती ज़िन्दगी की सुबह हो गई
तुम से मिल के फिर जीने की वजह मिल गई
चेहरे खिल गए और दीवारें गम की दरकती गईं,
खिलखिलाहट भरी फिर हँसी मिल गई।