विरह का जहर
विरह का जहर
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आया सावन का महीना
मन अब नाचे बन नगीना
बिरह में झुलसे तन मेरा
पिया क्यूँ डाले न अब फेरा
झूला झूले सखिया गाये
मुझे देख देख खूब चिढ़ाये
आग लगी है तन में मेरे
तू बेदर्दी तरस न खाये
वादा पर वादा करता है
तन मेरा जीभर जरता है
काहे चले गए पिया परदेश
जिय में छाया अजब क्लेश
रतिया दूभर बन नही बीते
दिन में तेरी यादो के कसीटे
मर मर कर हूँ अब जीती
विरह में जहर ही पीती
जब भी निकलूँ हाट बाजार
सबकी नजरे करती मुझ पर वार
अब बिरहन सा न तड़पाओ
तुम जल्दी से सावन में आ जाओ।
