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Sangeeta Agarwal

Others

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Sangeeta Agarwal

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विडंबना

विडंबना

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ये विडंबनाओं का संसार है,

यहां विडंबना का लगा अंबार है।

सब जानते हैं मृत्यु एक दिन आनी है,

फिर भी उससे बचने की जुगाड़ लगानी है।

घर घर में वो देवी, दुर्गा, काली बन पूजी जाती है

ये स्त्री, फिर भी वैसा सम्मान कहां पाती है?

जो पैसा, पद, पावर, क्षण भर के मेहमान हैं,

उन्हें पाने, हड़पने के लिए करने सारे विधान हैं।

कल महंगाई होती थी तो देश बन्द हो जाते थे

आज कभी युद्ध, महामारी के नाम दिखाए जाते हैं।

जो भगवान कण कण में वास करता है,

उसके घर तोड़े, बनाए जाते हैं।

ये तो अच्छा हुआ परिंदों के मजहब नहीं होते

नहीं तो वो बेचारे भी आसमान को बांटते होते।

पढ़ लिख कर, समझदार बन मानव दानव बन बैठा है,

ये विडंबना ही है कि बात बात पर भाई, भाई के खून का प्यासा है।

ये तो अच्छा हुआ, कुछ संग नहीं जाता सबके,

नहीं तो, इकट्ठा करते करते, सुखा लेते खुद को।

वफादार कुत्ता, घर में चेन से बांधा जाता,

बेवफा साथी को हर वक्त नवाजा जाता।

अपने कृष्णा, राम, भोले नाथ के होते हुए भी,

घर की दीवारों को बाबाओं की पिक से लादा जाता।

कहां तक गिनाई जाएं विडंबना सारी,

ये जगह छोटी पड़ जायेगी, कसम हमारी।



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