उठ रहा धुआँ कहीं
उठ रहा धुआँ कहीं
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किसी घर का छप्पर आज टूटा है कहीं
किसी औरत की आबरू लुटी है कहीं
राहों में गड्ढे दिख रहे,लगता है भटक रहा नौजवां कहीं
सोच रहा तालीम को मिल जाए उसके मुकाम कहीं
किसी मौसम ने दे दिया दगा,ना बैठा ताल मेल सही
अपनी फसल के जनाजे पर रो रहा किसान कहीं
अपने हुए अंधरे घर में, रोए जा रही है माँ कहीं
उसका रौशने-ए-चिराग शहीद हो गया सरहद पर कहीं
हर कोई जल रहा प्रतिशोध की आग में
जल रही है मानवता, देखो उठ रहा है धुआँ कहीं ।।