उड़ते परिंदे
उड़ते परिंदे
इंसा को बुनते-बुनते समझ नहीं पाए हम,
दूसरों को समझाने में खुद ही उलझते जाए हम।
सुबह सुनहरी किरणों को में उड़ते परिंदे,
सांझ तक भी ना लौट पाए हम।
वक्त-वक्त पर हालात बदले वक्त- वक्त पर साया,
हर्ज़ भरी इस राह को मैं तो समझ ना पाया।
खोटे सिक्कों पर चलता है दुनिया का ये बाज़ार,
हर वक्त बदले यहां घड़ियां यहां, हर वक्त नया सरकार।
कोयल की कुकू जैसी नियमों की यह बोली है,
मनमुटाव के पेड़ों पर लगी जीवन की होली है।
कुछ हरे कुछ पके हुए हैं,
कुछ लगते हैं नीले-पीले,
कुछ-कुछ मिट्टी से मिले हुए हैं,
तो कुछ लगते हैं खिले-खिले।
यहां अपनी अदालत है,
यहां है अपना कानून,
यहां सबका अपना-अपना ज़र्रा-सा है अलिफ, मीम, नून।
कुछ ख़्वाबों के शहजादे हैं कुछ वक्त की रानियां है,
लेकिन फिर भी थोड़ी-सी निराली ही हमारी कहानियां है।
हमें याद है कि पत्थर और शीशा एक हुआ नहीं करते है,
गलती से भी किसी के दामन को छुआ नहीं करते नहीं है।
तू-तू मैं-मैं की जिद में तुम अकेले मत हो जाना,
करने सोने की खोज में पारस को मत खो आना।
यह जीवन का खेल है यारों,खेल समझ कर खेलो,
जो भी अपने हिस्से आए खुशी खुशी तुम ले लो।