सुनती ही रहूँ
सुनती ही रहूँ
चिरपरिचित अंदाज में
उसके आगे दो पर्चियाँ होती थी
एक में कहो और दूसरी में सुनो ।
रीति-रस्म और रिवाज की भाँति
उसके लिए हमेशा
सुनो और सुनती ही रहो
की पर्ची चुन ली जाती थी ।
अब वह बेचारी नारी से, नारी शक्ति की पहचान है
धरातल पर उसके पग ,आसमान में उड़ान है
आँचल में दूध ,पर आँखों के पानी को विराम है
छोड़ कर घर की चार दीवारी ,हाथों ने सँभाली देश की कमान है।
हमेशा की तरह अभी भी,
उसके आगे दो ही पर्चियाँ हैं
एक में कहो और दूसरी में सुनो ।
अब वह अबला से सबला बन चुकी है
पक्का पर्ची कहो और कहती ही रहो की चुनेंगी
लेकिन आशा के विपरीत, अभी भी उसने पर्ची
सुनो और सुनती ही रहो की चुनी।
सबला से पहले मैं बेटी हूँ
उनकी परवरिश कर उठे कोई सवाल
कैसे यह बेटी करेगी स्वीकार
इसलिए नम-सम भाव से
मैं सुनो और सुनने के लिए हूँ तैयार ।
सबला से पहले मैं पत्नी हूँ
इस प्यार भरे अनमोल रिश्ते से
कैसे करूँ मोहभंग..?
जिसके मजबूत कँधे पर डालकर
दुनिया-जहान की गमगीनियाँ
मैं बेफिक्री की चादर ओढ़कर सो जाती हूँ।
जिसे मनसा-वाचा-कर्मणा से किया है स्वीकार
उस सुनो जी से, कैसे छीन लूँ ..
मैं सुनो का अधिकार।
सबला से पहले मैं माँ हूँ
जिसे अपने ही खून-पसीने से
किया है सिंचित
कैसे अपनी ही धड़कन को
सुनो, के अधिकार से कर दूं वंचित..?
अबला से पहले मैं महिला हूँ
मेरे सुनो में ही निहित रहता है
मेरा त्याग, अर्पण और समर्पण का स्वभाव ।
सृष्टि को संपूर्णता प्रदान करने वाला
नीर से क्षीर सागर तक अनवरत चलने वाला बहाव ।