सुई और धागे के जैसा
सुई और धागे के जैसा
एक सुई है जो चुभती जा रही थी,
धागे को देखो वह गलतियों को भी
जाते जाते ढ़कते जा रहा था।
सुई ने तो छेद कर दिया था,
उन कपडों में चुभते चुभते पर,
एक धागा था जो चलते चलते,
छेद को भी सिलते जा रहा था।
कहा कि सुई ने जोड़े रखा है और
उसकी गलतियां छिपा रहा था।
गलतियां तो सभी से होती है,
वो ऐसा सभी को बता रहा था।
सुई की तो आदत है चुभने के,
आखिर कब तक धागे की चलती।
धागा रहता था खामोश जब भी,
सुई की ही गलती निकलती।
चुभ गयी हाथों में अब वो,
खून की बूंदें फिर टपक पड़ी।
फेंका सुई को दूर कहीं और
ढ़ूढ़ने पर भी ना वो कही मिली।
धागे ने कहा मैं हूँ तो चिंता कैसी,
फिर धागे पर सभी की नजर चली।
ढूंढना नहीं पड़ा लोगों को काफी,
उस धागे में बंधी वो सुई भी मिली।
बस अब इच्छा है कुछ ऐसी कि,
मेरी नोक में तेरी पकड़ हो,
राहों में राहों के जुड़ने जैसे हो।
काश! तेरा और मेरा रिश्ता भी,
सुई और धागे के जैसा हो।