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Sandeep Gupta

Others

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Sandeep Gupta

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सरहद का पेड़

सरहद का पेड़

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सरहद पर मैंने एक पेड़ लगाया,

रोज़ पानी देते उसे समझाया,

सरहद के इस पार और उस पार का फर्क ।


कि कैसे इस पार बहती है हवा सुहानी,

और उस पार जाते ही हो जाती है वह बेगानी,

कि कैसे और क्यों उसे रहना है दूर,

बच के सरहद पार के दुश्मनों से ।


कि सीमा रेखा को मान लक्ष्मण रेखा,

रखना है उसे ख़ुद को समेटे मर्यादा में,

उस पार के रावण से दूर,

बहुत दूर ।


सब कुछ सही-सही, साफ़-साफ़,

उसे मैंने समझाया,

पेड़ हो, पेड़ की तरह रहना,

बढ़ो, फलो, फूलो,

करो जो जी चाहे,

पर रहना सरहद के इस तरफ़ ही,

अपनों के बीच ।


जब पौधा था वो, किया उसने वही,

जो सिखाया था मैने,

जवाँ होते होते दिखाने लगा वह अपने रंग,

गुपचुप कुछ डाल और पात फैला लिए उस ओर,

पसार ली कुछ जड़ें उस पार,

उस पार से आती हवा का किया आलिंगन,

जैसे प्रेमी-प्रेमिका मिले हों सालों बाद ।


पंछियों से उस पार के, की जम के गपशप,

पंथियों को दे दी छांव,

बिना पूँछे पता-ठिकाना,

इस पार के ना जाने कितने क़िस्से,

सुनाए उसने उस पार वालों को ।


फिर एक दिन वो हुआ जिसका अंदेशा था मुझे,

सियासी आँधियों का दौर चला,

एक अंधड़ ने उखाड़ फेंका उसे जड़ों समेत ।

पेड़ जिसने झेले थे तूफ़ान अनगिनत,

बेबस था सियासती तमाशों के आगे ।


सरहद का पेड़, गिरा धड़ाम,

गिरते गिरते भी,

उसने नहीं किया इस-पार उस-पार में भेद,

आधा वो गिरा इस ओर, आधा उस ओर ।


अगले दिन,

इस पार के अख़बारों में छपे,

इस ओर गिरे शहीद-पेड़ की शहादत के क़िस्से,

उस ओर गिरे विद्रोही-पेड़ की रुसवाई,

उस पार के अख़बारों ने भी ना छोड़ी कोई कसर ।


पत्ता पत्ता डाल डाल,

बाँट लिया इस-पार-उस-पार वालों ने,

'इस पार का' 'उस पार का' की लगा के मुहर ।


आख़िर कब तक सरहदों के पेड़,

चढ़ेंगे बलि सियासी वैर की !

आख़िर कब तब ?


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