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Ajay Singla

Classics

4.0  

Ajay Singla

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श्रीमद्भागवत - ५४ ; मनुष्य योनिओं को प्राप्त हुए जीवों की गति का वर्णन

श्रीमद्भागवत - ५४ ; मनुष्य योनिओं को प्राप्त हुए जीवों की गति का वर्णन

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कपिल मुनि कहें, हे माता 

मनुष्य जन्म जब जीव का होता 

पुरुष के वीर्यकण के द्वारा 

स्त्री के उदर में प्रविष्ट वो होता।


एक रात्रि में स्त्री रज से मिलकर 

एकरूप कलल बन जाता 

पांच रात्रि में बुदबुद रूप हो 

दस दिन में कुछ कठिन हो जाता।


उसके बाद अंडे के रूप में 

महीने में उससे निकल है जाता 

दो मास में विभाग हो जाता 

हाथ पांव आदि अंगों का।


तीन मास में, नख, अस्थियाँ और चर्म 

स्त्री पुरुष के चिन्ह आ जाते 

चार मास में सातों धातुएं 

मांसादि पैदा हो जाते।


पांचवें मास में भूख प्यास लगे 

छठे मास में झिल्ली में घूमता 

माता के खाए अन्न - जल आदि से 

पुष्ट वो तब है होने लगता।


पड़ा रहता उसी गड्ढे में 

बीच में उसी मल मूत्र के ही 

सुकुमार तो वो होता ही है 

भूखे कीड़े उसे तंग करें वहीं।


इस सब से उसे कष्ट है होता 

पल पल में अचेत हो जाता 

माँ के खाये कड़वे, तीखे से 

शरीर में वो पीड़ा है पाता।


जीव माता के गर्भाशय में 

झिल्ली में लिपटा, आँतों में घिरा हुआ 

पीठ, गर्दन कुंडलाकार मुड़े हुए 

सिर पेट की और मुडा हुआ।


पिंजरे में जैसे बंद पक्षी 

असमर्थ अंगों को हिलाने डुलाने में 

तभी उसे स्मरणशक्ति प्राप्त हो 

किसी एक अदृश्य प्रेरणा से।


सैकड़ों जन्मो के कर्म याद कर 

बहुत बेचैन वो हो जाता है 

ऐसी अवस्था में अशांत हो 

उसका दम घुटने लगता है।


सातवां महीना आरम्भ होने पर 

ज्ञान शक्ति का उन्मेष हो जाता 

तब वह जीव अत्यंत भयभीत हो 

प्रभु से वो याचना करता।


प्रभु की स्तुति करें वो 

कहे शरण में मैं हूँ आपके 

यद्यपि कष्ट मैं सह रहा हूँ 

दुःख से भरे हुए गर्भाशय में।


तो भी संसार मय अंधकूप में 

इससे बाहर जाकर गिरने की 

मुझे इच्छा बिलकुल नहीं है 

क्योंकि वहां माया है घेरती।


जिसके कारण उसी शरीर में 

अहं बुद्धि, आसक्ति होती 

उस संसार चक्र में पड़कर 

फिर कभी ना मुक्ति होती।


अत: मैं व्याकुलता को छोड़कर 

हृदय को हरि में स्थापित कर 

बुद्धि से संसार चक्र को पार करूं 

ताकि यहाँ ना आना पड़े मुझे फिर।


कपिल देव कहें, हे माता 

दस महीने का हो जीव जब 

भगवान की जब ऐसे स्तुति कर 

बाहर धकेले प्रसव वायु उसे तब।


बहुत कष्ट से बाहर वो निकले 

शवास की गति उसकी रुक जाये 

सब कुछ वो तब भूल जाता और 

पूर्व स्मृति सब नष्ट हो जाये।


माता के रुधिर और मूत्र में 

कीड़े के सामान तड़पता है वो 

ज्ञान सारा उसका ख़त्म हो 

अज्ञान से रोता बार बार वो।


फिर जो उसके सगे सम्बन्धी 

ना समझें अभिप्राय हैं उसके 

उसका वो पालन पोषण करें 

विरोध करने की शक्ति न उसमें।


इस प्रकार बाल्य अवस्था का 

दुःख भोग युवा अवस्था में आता 

इच्छित भोग जब प्राप्त ना हों 

क्रोध उसका है तब बढ़ जाता।


बहुत शोकाकुल हो जाये वो 

अभिमान और क्रोध बढ़ने से 

अपना ही नाश करने को 

दूसरे पुरुषों से वैर करे।


अभिमान ' मैं और मेरेपन ' का 

कामवश वो पाप है करता 

यही शरीर फिर वृद्ध अवस्था में 

अनेक प्रकार के कष्ट भोगता।


इन्हीं सब कर्मों से उसको 

संसार चक्र में आना पड़ता 

जो पुरुष परम पद चाहता 

स्त्रिओं का वो संग ना करता।


स्त्रिओं में अगर आसक्त रहे या 

अंत समय में ध्यान करे उनका 

जीव को फिर अगले जन्म में 

प्राप्त होता शरीर स्त्रिओं का।


पुरुष को मरणादि से भय या 

दीनता और मोह नहीं होना चाहिए 

बुद्धि से और वैराग्य से शुद्ध हो 

अनासक्त रह विचरणा चाहिए।



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