Rashmi Singhal

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शहर के कूड़ेदान में

शहर के कूड़ेदान में

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ये कैसा बचपन है जिसमें

न लोरी न कोई कहानी है?

न परियों का देश है कोई,

न खुशियों की कोई रवानी है,


न मिला उपहार कभी,

नहीं मिली पकवानों की थाली

न जीवन में रंग है कोई

न ही मनाई कभी दीवाली,


न सुनाई किसी ने लोरी और

न ही किसी ने गोदी झुलाया

वक्त ही मेरा बना सहारा

और वक्त ने ही मुझे सताया,


खाने को नहीं अच्छा खाना

किस्मत की ठोकर खाता हूँ

दूध नहीं है पीने को पर

आँसू पी कर सो जाता हूँ,


अजब-गजब करतब दिखाता

मैले है कपड़े मैला तन है

जाता हूँ जगमग गलियों में

पर, बुझा हुआ सा मेरा मन है,


रहता हूँ मैं सड़कों पर, पर

नहीं है मेरी कोई मंजिल

हूँ अपनी मर्जी का मालिक

फिर भी कुछ नहीं है हासिल,


जाने मैं पाप हूँ किसका, और

किसने मुझे कोख में पाला

पर होश में मैं आया जब से

तब से खुद को, खुद सम्भाला,


आसमान है चादर मेरी

धरती मेरी बिछौना है

खेलता हूँ तकदीर के संग

ज़िन्दगी मेरी खिलौना है,


न किसी ने ऊँगली थामी

न ही किसी ने काम दिया

दे-दे करके गाली मुझको

सबने अलग ही नाम दिया,


जाने मुझको है किन कर्मों

का, फल दिया भगवान ने ?

चर्चा है के, मैं पड़ा मिला

था, शहर के कूड़ेदान में ।


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