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Kiran Bala

Abstract

5.0  

Kiran Bala

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रिश्ते उलझे सुलझे से

रिश्ते उलझे सुलझे से

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ऐसा क्यों होता है कि

जीवन पथ पर चलते-चलते

अक्सर बन जाते हैं यूँही

अनकहे से कुछ अटूट रिश्ते


ऐसा क्यों होता है कि

सब चलते हैं साथ

फिर क्यों होता ये अहसास

कि कोई नहीं है आस-पास

और कभी ऐसे ही

अकेले चलते हुए भी

बिना कोई लिए आस

सबकुछ लगता है पास


ऐसा क्यों होता है कि

दूर हो जाते हैं अपने कुछ खास

और अनकहे रिश्ते दिल के पास

अपने जब लौटा दें खाली हाथ

तब अनजाने रिश्ते देते हैं साथ

पीड़ा के बनते मलहम ये खास

जुड़ते जिनसे समानुभूति के तार

कुछ नहीं मांगे पूर्णतया निस्स्वार्थ


ऐसा क्यों होता है कि

ये उलझे-सुलझे से रिश्ते

अक्सर रह जाते हैं यूँही

जीवन मझधार में फंस के



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